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चूंकि मुनियों में भाव की प्रधानता होती है, इसलिए मुनियों के लिए भाव से ही पूजा करना उपयुक्त है।
- मुनियों से भिन्न जो धर्माधिकारी जीव हैं, उनके लिए साक्षात् द्रव्यस्तव का विधान है। वह द्रव्यस्तव शुभभाव का कारण होता है। इसका आवश्यकनियुक्ति में विवेचन किया गया है।
एकदेश संयम वाले देशविरति श्रावकों के लिए भव कम करने में यह द्रव्यस्वत योग्य है। इसकी स्पष्टता के लिए कूप-खनन का दृष्टान्त दिया है। विशेष- चतुर्थ पंचाशक की दसवीं गाथा में इस दृष्टांत का वर्णन किया जा चुका है, अतः वहाँ द्रव्यस्तव है।
__यहाँ प्रश्न उपस्थित किया गया कि आवश्यकसूत्र में “दत्थव्यओपुष्फाई" कहकर पुष्प, दीप, धूप आदि "द्रव्यस्तव' हैं- यह कहा गया है, परन्तु यहाँ जिनभवन-निर्माण आदि को द्रव्यस्तव कहा है- ऐसा अन्तर क्यों ?
प्रस्तुत प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र ने स्तवविधि-पंचाशक की तिरालीसवीं गाथा में किया है
पुष्पादि शब्द में आदि शब्द से जिनभवन-निर्माण आदि का भी सूचन हो जाता है, क्योंकि जिनभवन आदि न हों, तो पुष्पादि से पूजा किसकी होगी ?
यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि आवश्यकसूत्र में मुनियों द्वारा पुष्पादि से पूजा करने का स्पष्ट निषेध किया गया है, तो मुनियों को द्रव्यस्तव कैसे होगा ?
___साधु शुद्धभाव में रहता है, जबकि गृहस्थ अशुभ भाव से शुभभाव में आता है, किन्तु साधु को इसकी भी प्रसन्नता होती है कि गृहस्थ ने गृहस्थ-जनित आरम्भ के अशुभ मार्ग से हटकर शुभमार्ग में प्रवेश किया है, तो कभी शुद्ध मार्ग में भी आएगा। साधु स्वयं शुद्धमार्ग में है, पर गृहस्थ को द्रव्यस्तव के लिए निर्देश दे सकता है, क्योंकि इसका आप्तपुरुषों ने निषेध नहीं किया है।
इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने स्तवविधि-पंचाशक की चवालीसवीं से छियालीसवीं तक की गाथाओं में इस प्रकार वर्णन किया है
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/43 - पृ. - 113
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