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प्रश्न- आवश्यकसूत्र में मुनियों द्वारा पुष्पादि से पूजा करने का का स्पष्ट निषेध किया गया है, तो उनको द्रव्यस्तव कैसे होगा ?
उत्तर- वहाँ साधुओं को स्वयं पुष्पादि पूजा करने का निषेध किया गया है, न कि अनुमोदन आदि का भी। साधु सामान्यतः दूसरों से द्रव्यस्तव करवा सकता है।
ऐसा सुना जाता है कि वज्रऋषि के द्वारा भी दूसरों से द्रव्यस्तव (पूजाविधान) करवाया गया था और आव यकनियुक्ति में साधुओं के लिए द्रव्य-पूजा के उपदेश का विधान है ही। वस्तुतः साधुओं को पुष्पादि से स्वयं पूजा करने का निषेध है, किन्तु दूसरों से करवाने का निषेध नहीं है।
जिस प्रकार भावस्तव द्रव्यस्तव से युक्त है, उसी प्रकार योग्य गृहस्थ द्वारा किया गया परिशुद्ध द्रव्यस्तव भी भावस्तव से युक्त है- ऐसा जिनवचन है। द्रव्यस्तव भगवान् के प्रति बहुमानरू भाव से युक्त होता है, अर्थात् द्रव्यस्तव से उत्पन्न होने वाला भाव (अल्प शुभभाव) अल्पभावस्तवरूप है। इस प्रकार द्रव्यस्तव भी भाव से युक्त होने के कारण भावस्तव कहा जाता है। सुपरिशुद्ध द्रव्यस्तव का लक्षण- प्रश्न है कि कौन-सा द्रव्यस्तव शुद्ध है ? वही द्रव्यस्तव शुद्ध है, जो विशुद्धि की ओर ले जाए। जिस द्रव्यस्तव से लोगों में निन्दा न हो, अपितु प्रशंसा हो तथा जो भावस्तव की ओर ले जाए, वह द्रव्यस्तव परिशुद्ध है। इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की सैतालीसवीं एवं अड़तालीसवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं
जो लोक में प्रशंसनीय हो और जिसके कारण विशिष्ट भाव उत्पन्न होते हों तथा जिन-शासन की प्रभावना होती हो, ऐसा द्रव्यस्तव सुपरिशुद्ध द्रव्यस्तव है।
द्रव्यस्तव में चैत्यवन्दन, स्तुति, प्रणिधान, चन्दनादि से पूजा आदि में अपनी-अपनी भूमिका के अनुरूप उत्साह से अंशतः शुभभाव अवश्य होता है। इसमें आगमोक्त विधिपूर्वक चैत्यवन्दनादि करने वालों का अनुभव प्रमाण है।
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्र सूरि - 6/44 से 46 – पृ. – 113,114 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/47 से 48 - पृ. - 114
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