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________________ द्वारा उस जिनभवन-निर्माण में चैत्यवन्दन करने का विधान है, तो वह द्रव्यस्तव का ही स्वरूप है और साधु के लिए द्रव्यस्तव की पुष्टि करता है। इस द्रव्यस्तव की पुष्टि करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की सैंतीसवीं से उन्चालीसवीं तक की गाथाओं में वर्णित करते हैं दशवैकालिक के विनयसमाधि अध्ययन आदि में जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचाररूप- चार प्रकार की विनय कही गई है, उसमें जो औपचारिक-विनय है, वह तीर्थंकर के विषय में द्रव्यस्तव से भिन्न नहीं हैं, अर्थात् द्रव्यस्तवरूप ही हैं। द्रव्यस्तवरूप औपचारिक-विनय करने के लिए ही चैत्यवन्दन में पूजा आदि का उल्लेख है, इसलिए साधु के लिए भी मर्यादानुकूल द्रव्यस्तव संगत है। पूजा, चैत्यवन्दन आदि में सूत्र-पाठ का उच्चारण यदि द्रव्यस्तव के लिए न हो, तो वह निरर्थक होता है, क्योंकि आगम में सूत्र-पाठ के बिना वन्दना नहीं कही गई है, अर्थात् सूत्र-पद के उच्चारण के बिना वन्दना हो ही नहीं सकती है, इसलिए साधु कायोत्सर्गपूर्वक स्तव-पाठरूप द्रव्यस्तव करे- यही शास्त्र-सम्मत है। पुनः, यह प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि साधु साक्षात् द्रव्यस्तव क्यों नहीं करता ? नहीं करने का कारण स्पष्ट है कि साधु सचित परिहारी होता है। जब साधु ने सचित का त्याग कर दिया, अर्थात् सचित पानी, पुष्प, फल आदि का स्पर्श करने का ही त्याग कर दिया हो, तो वह द्रव्यस्तव कैसे करेगा ? साधु को भाव-प्रधान माना गया है। भावपूजा करने की आज्ञा है, अतः साधु साक्षात् पूजा नहीं करता है। यह अधिकार गृहस्थ को ही है, क्योंकि गृहस्थ के लिए आरम्भ की छूट है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की चालीसवीं से बयालीसवीं तक की गाथाओं में साक्षात् पूजा के विषय में समाधान करते हुए कहते हैं सर्वथा प्राणातिपातविरमणरूप सम्पूर्ण अहिंसा महाव्रत के पालन करने वाले तथा पूर्ण अभिग्रही साधुओं के लिए साक्षात् द्रव्य-पूजा करना शास्त्र-सम्मत नहीं हैऐसा शास्त्रनीति से लगता है। साधुओं के लिए स्नानादि करना भी शास्त्र में निषिद्ध है, 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/37 से 39 - पृ. - 111 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/40 से 42 - पृ. - 112 177 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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