SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुष्टि करते हुए आचार्य हरिभद्र ने स्तवविधि - पंचाशक की इकतीसवीं से छतीसवीं तक की गाथाओं में द्रव्यस्तव की चर्चा की है समवसरण में पूजा आदि का निषेध नहीं किया गया है, क्योंकि वह भी द्रव्यस्तव है। राजा आदि का यह द्रव्यस्तव भगवान् को अनुमत रहा है। भगवान् मोक्ष के प्रतिकूल व्यापार की अनुमति कभी भी नहीं देते हैं, क्योंकि वे सदा और सर्वज्ञ पारमार्थिक परोपकार करने की भावना वाले होते हैं और ऐसा नहीं हो सकता कि मोक्ष के अनुकूल क्रिया में बहुमान न हो । जो थोड़ा सा भी भावस्तव है, वह ही भगवान् द्वारा स्वीकृत है और वह द्रव्यस्तव के बिना सम्भव नहीं है। इस प्रकार, अर्थापत्ति होने से द्रव्यस्तव भी भगवान् द्वारा स्वीकृत है। भावस्तवरूप कार्य की ईच्छा करने वाले के लिए भाव का कारण रूप द्रव्यस्तव भी उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार आहार से उत्पन्न तृप्ति को चाहने वाले के लिए आहार करना भी इष्ट है। आदिनाथ भगवान् ने भरत आदि को जिस प्रकार शल्य-विष आदि के उदाहरण देकर विषयभोगों का निषेध किया है, उसी प्रकार जिनभवन-निर्माण आदि का निषेध नहीं किया है। यदि भगवान् आदिनाथ को जिनभवन-निर्माण आदि अनुमत नहीं होता, तो वे विषयभोगों की तरह उनका भी निषेध करते । भगवान् ने जिनभवन-निर्माण आदि का निषेध नहीं किया है। इस शास्त्रयुक्ति से यह सिद्ध है कि जिन-भवन आदि का निर्माण उनको भी अभिमत है । इसी प्रकार, साधुओं को भी जिन बिम्ब-दर्शन से होने वाली प्रसन्नता आदि से द्रव्यस्तव सम्बन्धी अनुमोदन उचित है । साधुओं के द्रव्यस्तव करने की पुष्टि - साधु में भावस्तव बताया, पर साथ ही द्रव्यस्तव का स्वरूप भी बताया है । साधु उपचार से जो कार्य करता है, अथवा द्रव्यस्तव करने वाले की अनुमोदना करता है, उसे देखकर प्रसन्न होता है तथा सूत्र, अर्थ आदि के 1 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6 / 31 से 36 - पृ. 109,110, 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only 176 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy