SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचाशक-प्रकरण में स्तव-विधि - आचार्य हरिभद्र स्तवविधि के विषय का प्रतिपादन करने के पूर्व अपने आराध्य के चरणों में प्रार्थना करते हुए प्रथम गाथा में कहते हैं _____ तीनों लोकों में पूजनीय भगवान् महावीर को प्रणाम करके मैं अपने और दूसरों के कल्याण के लिए आगमानुसार शुद्ध स्तव-विधि का निरूपण करूंगा। ज्ञातव्य है कि स्तवन, स्तव, स्तुति, भक्ति, गुण-संकीर्तन आदि प्रायः पर्यायवाची शब्द हैं। स्तव के दो प्रकार - आचार्य हरिभद्र ने स्तवनविधि-पंचाशक की दूसरी गाथा में स्तवन के भेद बताएँ हैं स्तव के दो भेद हैं- 1. द्रव्य-स्तवन और 2. भाव-स्तवन। अनुरागपूर्वक भावोल्लास के साथ जिन-मन्दिर का सम्यक् निर्माण, अथवा जिन-प्रतिमा का सम्यक् निर्माण करना अथवा करवाना द्रव्य-स्तवन है, जो भाव-स्तवन का हेतु है। भाव-स्तवन है- मन, वचन और काय से विरक्त रहना, अर्थात् मन की परम विशुद्धि ही भाव-स्तवन है। द्रव्य-स्तव - आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की तीसरी गाथा में द्रव्यस्तव के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि शास्त्रोक्त विधिपूर्वक जिन-मन्दिर का निर्माण, जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, तीर्थों की यात्रा और जिन-प्रतिमा की पूजा करना द्रव्यस्तव है। भावस्तव का निमित्त कारण होने से ये द्रव्य-स्तव कहे जाते हैं। जिन-मन्दिर आदि की शुभ-प्रवृत्ति संसार के सुख-साधनों को पाने हेतु न हो, क्योंकि शास्त्रों में यह निषेध किया गया है। द्रव्य–क्रिया संसार को पाने के लिए नहीं है, अपितु शुभ-भावों को लाने के लिए है। यदि परमात्म-पूजन आदि द्रव्य-प्रवृत्ति संसार की याचना के लिए बन गई, तो वह द्रव्यस्तव नहीं है, क्योंकि द्रव्यस्तव का तात्पर्य हैशुभ-क्रिया। यहाँ द्रव्य शब्द को बाह्यक्रिया-काण्ड समझकर उसकी उपेक्षा करना अनुचित है। यहाँ द्रव्यस्तव, द्रव्यपूजा आदि अनुष्ठान का लक्ष्य शुद्धभावों को उत्पन्न करना ही है, न कि कोई निदान करना। शुद्ध भावस्तव का उत्स द्रव्यस्तव ही है, अतः 2 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/1 - पृ. 3 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/2 * पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 6/3 - पृ. - 165 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy