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________________ द्रव्यस्तव को भावस्तव का आधार समझकर ही करना है। द्रव्यस्तव अनुष्ठानों को न हिंसा समझें, न प्रभु की आज्ञा के विपरीत साधन समझें, क्योंकि आप्त पुरुषों के उपदेश से विपरीत प्रवृत्ति कभी द्रव्यस्तव नहीं बन सकती है और द्रव्यस्तव के बिना भावस्तव नहीं बन सकता है तथा भावस्तव के बिना भव-परम्परा समाप्त नहीं हो सकती है। भव-परम्परा को समाप्त करने के लिए मूल को पकड़ना होगा और उसी के सहारे आगे बढ़ना होगा। इस विषय को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि-पंचाशक की चौथी से सातवीं तक की गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं ये जिनभवन-निर्माण आदि धार्मिक अनुष्ठान आगमों में विहित माने गए हैं। भावपूर्वक जिनभवन निर्माण आदि अनुष्ठान करने वाले के वे अनुष्ठान सर्वविरति का कारण बनते हैं। यदि ये जिन-भवन आदि धार्मिक अनुष्ठान इहलोक या परलोक में भौतिक सुख पाने के लिए किए जाएं, तो वे निदान से दूषित बन जाते हैं और भावस्तव का कारण नहीं बनते हैं। ___ उपर्युक्त प्रकार का द्रव्यस्तव केवल भावस्तव का निमित्त ही नहीं होता है, अपितु आप्तवचनों का पालन करने के कारण भावस्तव के प्रति सम्मान (भक्ति-भाव) भी उत्पन्न करता है। यदि यही जिन-भवन आदि सम्बन्धी धार्मिक अनुष्ठान भौतिक सुखों की अपेक्षा से किया जाए, तो वह भावस्तव तो क्या, द्रव्यस्तव भी नहीं होता है। आप्तवचन से किन्चित् भी विपरीत प्रतीत होने वाले अनुष्ठानों को यदि द्रव्यस्तव कहा जाए, तो अतिव्याप्ति-दोष आ जाएगा और फिर आप्तवचन से विपरीत जो हिंसादि विभिन्न क्रियाएँ होंगी, वे सभी द्रव्यस्तव हो जाएंगी, जो उचित नहीं है। पूर्वपक्ष- जब जिन-सम्बन्धी अनुष्ठान जिनाज्ञा के विपरीत होने पर भी द्रव्यस्तव हैं, तब अतिप्रसंग आने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? उत्तरपक्ष - यदि ऐसा माना जाए, तो जिन को गाली देना, इत्यादि निन्द्य क्रियाएँ भी द्रव्यस्तव हो जाएंगी, क्योंकि वे भी जिन-सम्बन्धी हैं। 'पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि-6/4 से 7 - पृ. - 101 166 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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