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कारण प्रत्येकार्य नीरे सिद्धि प्रतीत कराय"
अतः प्रार्थना, पूजा, वन्दना, आदि विधिपूर्वक ही करनी चाहिए- यही बात आचार्य हरिभद्र पूजाविधि-पंचाशक की चालीसवीं गाथा में कहते हैं, कि
इस पूजाविधि में प्रसंगवश प्रणिधान का विवेचन किया गया है। मनुष्यत्व को प्राप्त करके आगम-सम्मत विधि आदि से परिशुद्ध भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजा करनी चाहिए। पूजा-निर्दोषता-प्रकरण- आचार्य हरिभद्र ने पूजाविधि-पंचाशक की इकतालीसवीं गाथा में उन व्यक्तियों के मन्तव्य को प्रकट किया है, जो पूजा की पद्धति को हिंसा-स्वरूप, दोष-स्वरूप मानते हैं तथा बयालीसवीं गाथा में द्रव्यपूजा दोषस्वरूप होने पर भी शुभभावरूप पुष्य एवं निर्जरास्वरूप ही हैं, अतः यह पूजा ग्राह्य है- इस सम्बन्ध में कथन करते हुए कहते हैं
पूजा में पृथिव्यादि जीवनिकायों की हिंसा तो होती ही है, अतः उसे परिशुद्ध कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि जीवहिंसा का जिनेन्द्रदेव ने निशेध किया है। दूसरी बात, इस पूजा से यदि जिनेन्द्रदेव का कोई लाभ होता हो, तो जीवहिंसा होने के बाद भी निर्दोष माना जा सकता है, किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है, अर्थात् भगवान् जिनेन्द्रदेव वीतराग होते हैं, उन्हें पूजा से आनन्द नहीं होता है, अतः जिनपूजा निर्दोष कैसे कही जा सकती है ?
___यद्यपि जिनपूजा में किसी न किसी रूप में कथन्चित् हिंसा तो होती ही है, फिर भी गृहस्थों के लिए कुएँ खुदवाने के उदाहरण के आधार पर इसकी निर्दोषता सिद्ध होती है (लेकिन साधुओं के लिए वह द्रव्यपूजा निर्दोष नहीं होती है, क्योंकि साधु द्रव्यपूजा के लिए स्नानादि करें, तो उनकी प्रतिज्ञा भंग होती है)।
1 देवचन्द चौवीसी - श्रीमद्देवचन्द - 3/5 2 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि-4/40 -पृ. 3 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभदसूरि - 4/41 - पृ. + पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 4/42
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