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________________ पापकर्म का बन्ध होता है, इसलिए तीर्थकर की समृद्धि की इच्छा से तीर्थकरत्व की प्रार्थना निदानरूप है, अतः दशाश्रुतस्कन्ध आदि में इसका निषेध उचित ही है। पुनः प्रश्न उपस्थित किया गया है, कि यदि ऋद्धि आदि पाने के लिए नहीं, अपितु परोपकार की भावना से तीर्थकर पद की अभिलाषा की जाए, तो इसमें क्या दोष है ? प्रस्तुत प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र पूजाविधि-पंचाशक की अड़तालीसवीं एवं उन्चालीसवीं गाथा में करते हैं भौतिक रिद्धि की थोड़ी भी इच्छा के बिना परोपकार की भावना से तीर्थंकर बनने की अभिलाषा दोषयुक्त नहीं है, क्योंकि तीर्थकर बनने की इच्छा वाला जीव तीर्थंकर नामकर्म बान्धने से अनेक जीवों का हितकारी बनता है। यह परमानन्द का जनक और अपूर्व चिन्तामणि के समान है। उपर्युक्त गुणों से युक्त होने से उसके धर्मदेशना आदि कार्य हितकारी और आदरणीय हैं। केवल परोपकार बुद्धि से तीर्थंकर बनने की भावनारूप उत्तम भाव वाले जीव की तीर्थंकर बनने की अभिलाषा अर्थापत्ति से धर्मदेशना अनुष्ठान में प्रवृत्ति रूप है, इसलिए वह अभिलाषा दोष-रहित है। प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार - प्रणिधान (प्रार्थना) के विषय में विशेष रूप से यह दर्शाया गया है कि प्रभु परमात्मा के सम्मुख संकल्प ऐसे होना चाहिए, जिससे संसार के द्वार बन्द हो जाएँ, अर्थात् भव-भ्रमणा समाप्त हो जाए। संकल्प के समय पूर्णतः परमात्मा के प्रति समर्पण के भाव आ जाएँ, अर्थात् मैं कुछ हूँ- यह भाव सर्वथा समाप्त हो जाए, क्योंकि आगमानुसार विधि से ही आत्मा आत्मोन्नति के शिखर पर चढ़ सकती है। यदि विधि आगमानुसार नहीं होती है, तो प्रभु से कितनी भी प्रार्थना कर लें, प्रभु के सम्मुख कितनी भी वन्दना कर लें, पुण्यबन्ध के अतिरिक्त क्या लाभ मिल सकता है ? निर्जरा हेतु तो विधि आगमानुसार ही होना चाहिए। देवचन्द्रजी महाराज ने संभवनाथ भगवान् के स्तवन में कहा है “एक बार प्रभु वन्दना रे आगम रीते थाय पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 4/38,39 - पृ. - 70 130 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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