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________________ परार्थकरण, शुभगुरुयोग और संसार-सागरपर्यन्त, अर्थात् मोक्ष नहीं मिले, तब तक अखण्ड गुरु-आज्ञा का पालन- ये आठ भाव प्राप्त हों। 1 भवनिर्वेद - संसार के प्रति विरक्ति धर्मसाधना की नींव है। बिना भवनिर्वेद के धर्म-साधना बिना नींव के मकान के समान होती है। जिन्हें संसार से उद्वेग नहीं है, वे मोक्ष के लिए प्रयत्न कैसे कर सकते हैं, क्योंकि संसार और मोक्ष- दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। 2 मार्गानुसारिता – कदाग्रह से रहित तात्त्विक मार्ग का अनुसरण करना मार्गानुसारिता है। अपनी ही मान्यता को सत्य मानने वाले दूसरों की सच्ची बात को समझने का प्रयत्न नहीं करते, और उनको कोई समझाए, तो भी वे मानने को तैयार नहीं होते हैं। इस प्रकार कदाग्रह से सत्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः सत्य को प्राप्त करने के लिए कदाग्रह से मुक्त होकर सत्य का अनुसरण करने की प्रवृत्ति मार्गानुसारिता है। 3. इष्टफलसिद्धि - धर्म में प्रवृत्ति हो- ऐसी लौकिक आवश्यकतों की उपलब्धि। जीवन के लिए उन आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति होनी चाहिए, जिससे उल्लासपूर्वक धम में प्रवृत्ति हो सके, इसलिए आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति की मांग करनी चाहिए। 4. लोकविरुद्ध त्याग- लोकविरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग, क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति करने से लोगों के चित्त में संक्लेश होता है, द्वेष होता है और इससे उनकी अनर्थ में अर्थात् निन्दा आदि की वृत्ति होती है, फलतः लोकविरुद्ध प्रवृत्ति एक बड़े अनर्थ का साधन हो जाती है। 5. गुरुजन-पूजा- माता, पिता, विद्यागुरु, ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध, और धर्मोपदेशक- ये सब शिष्ट पुरुष गरु के रूप में मान्य हैं। धार्मिकता प्राप्त करने के लिए इन गुरुओं का आदर करना आवश्यक है। 6 परार्थकरण- परोपकार के कार्य करना। धर्म प्राप्त करने की योग्यता पाने के लिए भी स्वार्थ से परे होकर लोकोपकारी कार्य करना चाहिए। 7. शुभगुरु-योग- रत्नत्रयरूप गुणों से सम्पन्न उत्तम गुरु का संयोग भी आवश्यक है। 127 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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