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8. शुभगुरुवचनसेवा- चारित्रवान् आचार्य की आज्ञा का पालन। मोक्ष नहीं मिले, तब तक गुरु के प्रत्येक उपदेश का पालन अनिवार्य है। विशेष - प्रणिधान का अर्थ निश्चय या संकल्प होता है। यहाँ इसका तात्पर्य हैप्रार्थनागर्भित संकल्प, क्योंकि इसमें प्रभु के समक्ष एकाग्रचित्त होकर भवनिर्वेद आदि की याचना की जाती है। परमात्मा के सम्मुख - प्रणिधान करने का भी समय होता है कि कब तक प्रभु से मांगते रहें, अर्थात् भवनिर्वेद आदि भाव जब स्वभाव बन गया हो, तो फिर मांगने की जरुरत नहीं है। मांगना तभी तक है, जब तक संसार से उब न हो, विरक्ति न हो। वर्तमान में हमारी स्थिति तो अभी उस ओर नहीं पहुँची, अतः प्रार्थना करने में पूर्णतः भाव होने चाहिए। चूंकि शब्द तो जड़ हैं, भावों में जीवनता होती है, अतः अन्तर-भाव से शुभसंकल्प करना चाहिए, जिससे संसार से अप्रीति हो जाए और संसार की यह अप्रीति ही जीव की अप्रमत्तद ॥ है, और यह अप्रमत्तदशा ही अयोगी के निकट पहुँचने का आलम्बन है। सागर पार होने के लिए आलम्बनरूप एक नौका मिल गई, तो फिर अन्य नौका के आलम्बन की आवश्यकता नहीं होती है। इस प्रकार, अप्रमत्तदशा का आलम्बन प्राप्त होने के बाद अन्य आलम्बन की आव यकता नहीं है।
यही बात आचार्य हरिभद्र पूजाविधि-पंचाशक की पैंतीसवीं गाथा में' कहते
भवनिर्वेद, अप्रमत्तदशा आदि की उच्चकक्षा की उपलब्धि तक या मोक्षरूप फल न मिले, तब तक याचना करना चाहिए। यह मत भी उचित है, क्योंकि दोनों का भाव एक ही है। भवनिर्वेद आदि गुण जब उच्चकोटि के बनते हैं, तब ही अप्रमत्तदशा या मोक्ष मिलता है। यहाँ भवनिर्वेद आदि गुण जब तक न मिले, तब तक प्रार्थना करना योग्य है, अथवा भवनिर्वेद आदि के उच्चकोटि के भाव बनते हैं, तो अप्रमत्तदशा या मोक्ष मिले बिना रहता नहीं है, इसलिए भवनिर्वेद आदि गुण न मिले, तब तक प्रार्थना करना योग्य है। इन दोनों का भाव समान है। अप्रमत्त-गुणस्थान से पहले, अर्थात् छठवें गुणस्थान
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-4/35 - पृ. - 69
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