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जैनों में कई लोगों का तर्क रहता है कि मन्दिर जाओ, उपाश्रय जाओ, शुद्धि करो, वस्त्र बदलो, फिर जाओ, अतः यह सब करने में आलस आता है, या समय नष्ट होता है, इसलिए जाने की इच्छा नहीं होती है- ये सब विधि नहीं करने के बहाने हैं। पाँच बार नमाज पड़ने वाला मुस्लिम नमाज पड़ने के पूर्व पाँचों बार शुद्धि की क्रिया करता है, जिसे करने में 10 से 15 मिनिट लगते हैं, उसमें भी नमाज पड़ने का समय निश्चित होता है। वे चाहे जब नमाज नहीं पड़ने लगते हैं, जो समय निर्धारित होता है, उसी समय में पड़ते हैं, फिर कितना भी काम क्यों न हो, भले वे गाड़ी ही क्यों न चला रहे हो, भले ही उनकी दुकानों पर ग्राहक क्यों न खड़ा हो, भले ही उनके लिए हजारों की कमाई का प्रसंग ही उस समय क्यों न हो। समय तो समय है।
जैन धर्म में भी प्रतिक्रमण, पूजा, प्रतिलेखन आदि सभी कार्य समय-समय पर ही करने का विधान है। इसी प्रकार, आचार्य हरिभद्र ने पूजाविधि-पंचाशक की पाँचवीं गाथा में' समयानुसार पूजा करने का निर्देश दिया है तथा अपवादरूप में अन्य समय में भी पूजा करने का विधान बताया है, पर यह विधान उन लोगों के लिए है, जो किसी भी दशा में यह समय नहीं निकाल सकते हैं, अर्थात् वे, जो चाहते हुए भी निर्धारित समय (आजीविका के कारण) नहीं निकाल सकते हैं, उनके लिए समय की छूट दी गई है, ताकि कहीं वे धर्ममार्ग से च्युत न हो जाएँ। सामान्यतया ; प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल- इस प्रकार तीन बार पूजा करना चाहिए और यदि इन तीनों कालों में सम्भव नहीं हो, तो (अपवादपूर्वक) नौकरी, व्यापार आदि आजीविका के समय के अतिरिक्त जब भी समय मिले, तब पूजा करना चाहिए।
प्रश्न उपस्थित हुआ कि जब पूजा का समय निर्धारित है, तो फिर आजीविका का ख्याल क्यों रखा गया ? प्रस्तुत प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र ने पूजाविधि-पंचाशक की छठवीं से आठवीं तक की गाथाओं में प्रस्तुत किया है जो निम्न है
1 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि-4/5 - पृ. - 58 2 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि-4/6 से 8 - पृ. -58,59
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