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यह द्वारगाथा है। इसमें निर्दिष्ट काल, शुचि, पूजा-सामग्री, विधि और स्तुति-स्तोत्र- इन पाँच द्वारों का क्रमशः विवेचन किया है। इसके पश्चात् प्रणिधान और पूजा की निर्दोषता- इन दो प्रकरणों का विवेचन किया है। कालद्वार - समय का महत्व होता है, अर्थात् जो कार्य जिस समय पर करने का है, वह कार्य उसी समय पर करना चाहिए, जिससे कार्य का परिणाम सुन्दर हो। जिस प्रकार समय पर सोना, समय पर उठना, समय पर भोजन करना, समय पर व्यापार करना, समय पर विद्यालय जाना, समय पर अपने गृह में आना- ये सारे कार्य समय पर होते हैं, तो वे जीवन के लिए हितावह होते हैं, उसी प्रकार धर्म-कार्य भी समय पर करने पर आत्महितकारी होता है। यही बात आचार्य हरिभद्र ने पूजाविधि-पंचाशक की चौथी गाथा में कही है
जिस प्रकार उचित समय पर किया गया कृषि-कार्य बहुत फलदायी होता है, उसी प्रकार सभी धर्म-क्रियाएँ यथासमय की जाए, तो बहुत लाभदायक होती हैं। जिनपूजा में काल – परमात्मा की पूजा का विधान तीन समय है। वर्तमान में भी यह विधान तीन समय ही बताया गया है, पर वर्तमान में पूजा अधिकांशतः प्रातःकाल ही की जाती है, मध्याह्न एवं सायंकाल की पूजा जनसमूह में गिने-चुने लोग ही करते हैं। उसमें भी, एक ही व्यक्ति तीनों कालों में पूजा करे, यह देखने तथा सुनने को बहुत ही कम मिलता है, क्योंकि वर्तमान में लोगों का प्रभु परमात्मा के प्रति अहोभाव कम है। यदि व्यक्ति में प्रभु परमात्मा के प्रति बहुमान के भाव, अहोभाव के भाव, समर्पण के भाव हों, तो अवश्य ही वह तीन बार परमात्मा के द्वार पर पहुँचेगा ?
जैन-परम्परा में दो बार प्रतिक्रमण के लिए उपाश्रय में पहुँचे व तीन बार पूजा के लिए जिनालय में पहुँचे, अर्थात् श्रावक को कुल पाँच बार धार्मिक-स्थल पर बारह माह ही पहुँचने का विधान है। ऐसे ही क्रम में, मुस्लिम सम्प्रदाय में भी पाँच बार मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ना होती है, अतः अधिकांश मुस्लिम पाँच बार मस्जिद पहुँच जाते हैं, क्योंकि उनको अपने धर्मगुरु के आदेश पर विश्वास है, उसके प्रति बहुमान है।
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