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जिन जीवों को विधि अर्थात् जैन आचार के प्रति द्वेष नहीं है, वे जीव भी शुद्ध को प्राप्त होने के कारण आसन्न हैं, क्योंकि क्षुद्र कर्म करने वाले जीवरूपी हरिणों के लिए विधि का उपदेश सिंह की गर्जना के समान है। जिस प्रकार हरिणों को सिंह का गर्जन भयावह लगता है, उसी प्रकार कर्मों से बंधे जीवों को विधि अर्थात् आचारविषयक उपदेश भयावह लगता है। ऐसे जीव संसार से भयभीत हो जाते हैं ।
विधि - पालन के लिए गीतार्थ को उपदेश आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि- पंचाशक की उन्पचासवीं गाथा में गीतार्थों को विधिपालन हेतु निर्देश दिया है कि आचार्यों को उपर्युक्त विधि के अनुसार परस्पर अविरोधपूर्वक मुग्धजीवों के हितार्थ वन्दनविधि का सम्यक् रूप से प्रतिपादन करना चाहिए, अर्थात् अप्रमत्त होकर स्वयं विधिपूर्वक ही जिन - वन्दना करना चाहिए और दूसरों से विधिपूर्वक ही जिन-वन्दना करवाना चाहिए, क्योंकि मुग्धजीव दूसरों को देखकर प्रवृत्ति करने वाले होते हैं।
आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि - पंचाशक की पचासवीं (अन्तिम) गाथा में यह निर्देशित करते हैं कि चैत्यवन्दन की विधि का ज्ञान जीवों की योग्यता के अनुसार देना ही चाहिए। धीर पुरुषों को दुराग्रह से रहित होकर चैत्यवन्दनविधि का ज्ञान न होने पर विधि-विहीन भी वन्दना करना चाहिए, क्योंकि दुषमा - काल में सभी को विधि का ज्ञान होना दुर्लभ है। विधि का ही आग्रह रखा जाएगा, तो मार्ग का उच्छेद हो जाएगाऐसा विचार कर दुराग्रहों से मुक्त होकर बीमार व्यक्ति को दवा देने के उदाहरण के समान उपासकों की योग्यता के अनुसार उन्हें जिन - वन्दना के लिए प्रेरित करना चाहिए । यदि किसी रोगी को दवा देनी हो, तो उसकी अवस्था देखना पड़ती है। उसकी अवस्था एवं बीमारी के अनुसार उचित समय में, उचित मात्रा में, उचित दवा दी जाए, तो उस दवा से रोगी को लाभ होता है, अन्यथा हानि। उसी प्रकार, सर्वकल्याणकारी वन्दनाविधि भी योग्य जीवों को उनकी योग्यतानुसार विधिपूर्वक दी जा
1 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 3/49- पृ. - 55
2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 3 / 50 - पृ.
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