SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभव्य जीव प्रथम और द्वितीय वन्दना की योग्यता को प्राप्त नहीं कर सकता है, क्योंकि अभव्य जीव अपुनर्बन्धक स्थिति को प्राप्त ही नहीं कर सकता, तो इन दो वन्दना का अधिकारी कैसे हो सकता है, यही बात आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की छियालीसवीं गाथा में कही है ____ अभव्य (मोक्षप्राप्ति के अयोग्य) जीव शुभ फल को उत्पन्न करने के स्वभाव वाले चिन्तामणि-रत्न कल्पवृक्ष आदि को भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं, तो फिर मोक्ष की हेतुभूत और प्रधान प्रथम और द्वितीय प्रकार की वन्दना के अधिकारी कैसे हो सकते हैं ? अभव्य जीव दो वन्दना के अधिकारी कैसे बन सकते हैं, जबकि सभी भव्य जीव भी इस वन्दना के अधिकारी नहीं बन पाते हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की सैंतालीसवीं गाथा में' कहते हैं, कि इस प्रधान वन्दना की भूमिका को अभव्य जीव प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भव्य जीव प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन सभी भव्य जीव इस वन्दना को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वे ही भव्य जीव इस वन्दना को प्राप्त कर सकते हैं, जो आसन्न भव्य हैं। स्वभाव से भव्य होने पर भी जो दूरभव्य हैं, वे जीव इस वन्दना को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। चूंकि आगम में भव्यत्व को अनादिकालीन भी कहा गया है, अतः भव्यत्व मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होगी ही, यह भी आवश्यक नहीं है। यदि एसा होता, तो सभी भव्यजीवों को मोक्ष-प्राप्ति हो जाती। विधि-द्वेष से रहित जीव आसन्न भव्य है - चैत्यवन्दन की विधि के प्रति जिसे बहुमान होता है, अर्थात् विधि (क्रिया) के प्रति जिसे द्वेष नहीं है, उसके लिए यही समझना चाहिए कि वह निकट भव्य है, क्योंकि निकट मोक्षगामी जीव को सुविधि पर द्वेष नहीं होगा ? सुविधि के प्रति तिरस्कार नहीं होगा ? यही विवरण आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की अड़तालीसवीं गाथा में देते हैं पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि-3/46 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसरि-3/47 - प्र. - 54 - पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि-3/48 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy