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________________ और प्राप्तकर्ता भी उसकी विधिपूर्वक आराधना करें, तो लाभ ही होगा, अन्यथा हानि होगी। चैत्यवन्दनविधि का प्रस्तुत प्रकरण तीन प्रकार से निर्दिष्ट हैं- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । वर्तमान परम्परा में जघन्य चैत्यवन्दन ही सम्भव है, किन्तु कोई निकटभव्य, मध्यम और उत्कृष्ट चैत्यवन्दन भी कर सकता है। ___ द्रव्य एवं भावरूप से वन्दन दो प्रकार का है। भाव के बिना द्रव्य का कोई महत्व नहीं है। द्रव्य-वन्दना मोक्ष में हेतु नहीं होती है, फिर भी द्रव्य का महत्व इसलिए है कि द्रव्य के बिना व्यवहार-धर्म पूर्णतः समाप्त हो जाएगा। व्यवहार-धर्म ही निश्चय-धर्म का हेतु बनता है, अतः द्रव्यवन्दना आवश्यक है। द्रव्यवन्दना होने पर ही भाववन्दना होना सम्भव है, क्योंकि द्रव्य ही द्रव्य करते रहे, भाव नहीं जुड़े, तो आकाश-कुसुमवत् स्थिति हो जाएगी ? अर्थात् द्रव्य का कोई अर्थ नहीं रहेगा। द्रव्य का अर्थ तब ही है, जब उसमें भाव जुड़ जाएँ। द्रव्य एवं भाव का एक प्रकार होना ही सोने में सुहागा है। पंचाशक-प्रकरण में पूजाविधि 'पूजा' की व्युत्पत्ति और परिभाषा - 'पू' - पुण्य, पुष्प और पूर्व । 'जा' - जाप, जातक, जश और जाल । पूजा – परमात्मा की पूजा – पुण्य-पाप के जाल को काटकर जो मोक्ष में ले जाए, वह पूजा है। पू – पानी, पुष्प आदि द्रव्य पूजा तथा जा – जाप आदि भावपूजा का सम्मिलित रूप है जिसमें, वह पूजा है। मुख्य रूप से पूजा के दो भेद हैं- द्रव्यपूजा और भावपूजा। जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत्, नैवेद्य और फलादि से जिनबिम्ब की पूजा करना द्रव्यपूजा है तथा क्षायोपशमिक आदि भावों से कीर्तन, जाप, चैत्यवन्दन, देववन्दन, ध्यान, गुणस्मरण आदिरूप जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति करना भावपूजा है। अन्तर इतना ही है कि 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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