________________
आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की चौंतीसवीं से इक्तालींसवी तक की गाथाओं में' विवेचन किया है, जो इस प्रकार है
सिद्धान्त के जानकार भद्रबाहु स्वामी आदि ने आवश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थों में चार प्रकार के शुद्ध-अशुद्ध मुद्राओं का दृष्टांत दिया है। चैत्यवन्दन के विषय में भी वह दृष्टांत विचारणीय है।
स्वर्णादि द्रव्य शुद्ध और छाप भी प्रामाणिक हो, तो वह मुद्रा असली होती है। स्वर्णादि द्रव्य तो शुद्ध हो, किन्तु छाप ठीक न हो, तो वह मुद्रा पूर्णतः प्रामाणिक शुद्ध नहीं होती है।
____ छाप तो ठीक हो, किन्तु स्वर्णादि द्रव्य अशुद्ध हो, तो वह मुद्रा जाली कही जाती है। छाप और द्रव्य- दोनों के ही अप्रामाणिक होने पर मुद्रा नकली या खोटी होती है। मुद्रा के इन चार प्रकारों के समान ही चैत्यवन्दन में द्रव्य और भाव के आधार पर ही उसका मूल्य मिलता है। भाव एवं द्रव्य–दोनों शुद्ध होने पर चैत्यवन्दन का पूरा मूल्य मिलता है। भाव शुद्ध होने पर उसके वास्तविक मूल्य से थोड़ा कम मूल्य मिलता है, किन्तु भाव और द्रव्य- दोनों के ही अप्रामाणिक होने पर उस चैत्यवन्दन का कुछ भी मूल्य नहीं होता है। इससे तो मात्र लोगों को ठगा जाता है।
जो अनुपयोगी है, ऐसी दूसरों को धोखा देने की प्रवृत्ति अनर्थ कहलाती है, इसलिए उसको यहाँ प्रस्तुत नहीं किया गया है। यहाँ शुद्ध रूप से आत्मा के लिए उपयोगी आगमोक्त मोक्षादि फल की विचारणा की जाती है। द्रव्य-चैत्यवन्दन के द्वारा दूसरों को ठगने से मिलने वाला फल आत्मासम्बन्धी नहीं है, अपितु पुद्गल सम्बन्धी है।
श्रद्धायुक्त, स्पष्ट उच्चारण एवं विधिसहित की गई वन्दन शुद्ध मुद्रा के समान शुद्धवन्दना है। यह वन्दना अवश्य मोक्षफलदायिनी और यथोचित गुण वाली होती
जो वन्दना भाव से युक्त हो, परन्तु वर्णोच्चार आदि विधि से अशुद्ध हो, वह वन्दना दूसरे प्रकार की उस मुद्रा के समान है, जिसकी धातु शुद्ध है, किन्तु छाप ठीक
1 पंचा कि प्रकरण- आचार्य हरिभद्र सूरि-3/34 से 41 - पृ.सं. 50 से 53
106
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org