SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं है। इस वन्दना को भी तीर्थंकरों ने शुभ कहा है, क्योंकि क्रिया की अपेक्षा भाव श्रेष्ठ है और क्रिया में भावों की ही प्रधानता होती है। भावरहित चैत्यवन्दन वर्णोच्चार आदि से शुद्ध होने पर भी खोटे सिक्के के समान होता है, अर्थात् श्रद्धा के बिना वन्दना चाहे जितने भी शुद्ध उच्चारणपूर्वक की जाए, वह वांछित फलदायिनी नहीं होती है और जो वन्दना श्रद्धा और शुद्ध वर्णोच्चारइन दोनों से रहित हो, उसे केवलचिह्न रूप जानना चाहिए। श्रद्धा और वर्णादि के शुद्ध उच्चारण- इन दोनों से रहित वन्दना अनिष्ट फलदायिनी होती है। तीसरे और चौथे प्रकार की वन्दना प्रायः अति दुःखी और मन्दबुद्धि वाले जीवों द्वारा ही होती है। कभी-कभी उपयोगरहित अवस्था में संक्लेशरहित जीवों को भी होती है, इसलिए मूल में 'प्रायः' पद रखा गया है तथा प्रायः निम्न जाति के देवों में उत्पत्ति का हेतु होने से दुर्गति देने वाली होती है। पाँचवे आरे (दुग्शमा-काल) में तो यह रूप से दुर्गति देने वाली होती है। तीसरी और चौथी वन्दना के विषय में कई आचार्यों की अलग-अलग धारणाएँ हैं। कई आचार्यों का कथन है कि ये वन्दना शुद्ध नहीं है, कईं आचार्यों का कथन है कि यह वन्दना लौकिक है, कई आचार्यों का यह कथन है कि यह वन्दना जिन-वन्दना ही नहीं है। कई आचार्यों का यह कथन है कि इस वन्दना में जो भाव होने चाहिए, वह भाव नहीं हैं। इसकी अभिव्यक्ति आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की बयांलीसवीं गाथा में' की है जो निम्नलिखित है कुछ आचार्य कहते हैं कि तीसरे और चौथे प्रकार की वन्दना लौकिक ही है। जैनेतर स्वमान्य देव की जो वन्दना करते हैं, वह केवल नाम से वन्दना कही जाती है, क्योंकि लौकिक वन्दना का निम्न देवयोनि आदि में उत्पत्तिरूप जो फल है, वही फल इस वन्दना का है। लौकिक-वन्दना से थोड़ा भी अधिक फल इस वन्दना से नहीं मिलता है। 1 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि- 3/42 - पृ. -53 2 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि-3/43,44 - पृ. - 53 107 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy