SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की इकतीसवीं से तैंतीसवीं तक की गाथाओं में इस विषय पर विशेष प्रकाश डाला गया है - ___उपर्युक्त यथाप्रवृत्तिकरण आदि विभागों के आधार पर तथा अनादि संसार में भटकते जीवों द्वारा स्वीकृत द्रव्यलिंग अर्थात् बाह्यवेश आदि के आधार पर इस वन्दना का सम्यक् प्रकार से निरूपण करना चाहिए, जिससे यह मोक्ष का साधन बने। भावपूर्वक चैत्यवन्दन करने पर जीवों का संसार अधिक से अधिक कुछ समय कम अर्द्धपुद्गलपरावर्त मात्र रहता है, उससे अधिक नहीं रहता। ऐसा जैनागमों में प्रसिद्ध है। शुद्ध चैत्यवन्दन की स्थिति प्राप्त होने के बाद जीव संसार में कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरावर्त से अधिक नहीं रहता है। यद्यपि उतने समय में शुद्ध चैत्यवन्दन की स्थिति अनेक बार प्राप्त हो सकती है, किन्तु अनन्त बार नहीं। यह सत्य है कि चैत्यवन्दनों के अवसरों की प्राप्ति उसे अनन्त बार हुई है, किन्तु उसके पूर्व शुद्ध चैत्यवन्दन नहीं हुआ, अतः सिद्ध होता है कि अनन्त बार किया गया उसका वह चैत्यवन्दन अशुद्ध ही था। इस प्रकार इस चैत्यवन्दन की प्रक्रिया को विद्वानों को आगम और युक्ति से निरूपित करना चाहिए, क्योंकि चैत्यवन्दन करने मात्र से मोक्ष नहीं होता, अपितु शुद्ध चैत्यवन्दन करने से ही मोक्ष होता है। रुपये के उदाहरण से शुद्ध-अशुद्ध चैत्यवन्दना पर विचार - चैत्यवन्दन करन पर ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। जब द्रव्य चैत्यवन्दन-भाव चैत्यवन्दन होता है, तब ही मोक्ष की प्राप्ति संभव होती है, अतः अशुद्ध चैत्यवन्दन से मुक्ति-लाभ प्राप्त नहीं होगा। शुद्ध चैत्यवन्दन से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है। इस शुद्धता-अशुद्धता के विषय मे भद्रबाहुस्वामी द्वारा रचित आवश्यकनियुक्ति में सिक्के के प्रकारों का विवरण दिया है। चैत्यवन्दन करने वालों के परिणामों को इसी दृष्टांत द्वारा घटित करने का उपक्रम | पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि-3/31 से 33 – पृ. 49,50 105 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy