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________________ संभव होती है, अर्थात् अपुनर्बन्धकादि जीवों का चैत्यवन्दन ही शुद्ध हो सकता है। इससे नीचे की अवस्था वाले जीवो का चैत्यवन्दन अशुद्ध होता है। आगम में इन कारणों के तीन प्रकार बतलाए गए हैं- 1. यथाप्रवृत्तिकरण 2. अपूर्वकरण 3. अनिवृत्तिकरण। ये तीन कारण भव्य जीवों के ही होते हैं, और अभव्यों को प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण ही होता है। करण जीव के परिणाम विशेष (अध्यवसाय) को कहते हैं। कौन करण कब होगा ? अर्थात् यथाप्रवृत्तिकरण किस स्थिति में होता है? अपूर्वकरण होने पर कैसे परिणाम होते हैं तथा अनिवृत्तिकरण होने में कैसे अध्यवसाय होते हैं ? इसका विस्तृत विवेचन आचार्य हरिभद्र द्वारा चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की तीसवीं गाथ में किया गया है, जो निम्नलिखित है जब तक ग्रन्थि हो, तब तक पहला यथाप्रवृत्तिकरण होता है। ग्रन्थि को अतिक्रान्त करने पर दूसरा अपूर्वकरण और जब जीव सम्यक्त्व की ओर अभिमुख हो गया हो, तब अनिवृत्तिकरण होता है। यथाप्रवृत्तिकरण – 'नदी-पाषाणन्याय' से इच्छा के बिना ही कर्मों के क्षय होने पर अध्यवसाय विशेष यथाप्रवृत्तिकरण है। संसारी जीवों को बिना प्रयत्न के भी अनादिकाल से प्रतिक्षण कर्मक्षय होता रहता है, इसलिए इसे यथाप्रवृत्तिकरण कहा जाता है। यथा, अर्थात् बिना किसी पुरुषार्थ के स्वतः हुई प्रवृत्ति यथाप्रवृत्तिकरण कहलाती है। ग्रन्थि – ग्रन्थि, अर्थात् वृक्ष की दुर्भद और कठिन गाँठ जैसे दुर्भेद राग-द्वेष का तीव्र परिणाम। ग्रन्थि-देश – जिस प्रकार संसारी जीवों को यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा प्रतिक्षण कर्मक्षय होते रहते हैं, उसी प्रकार उनके नए कर्म भी बंधते रहते हैं, इसलिउ कर्म पूर्णतया नष्ट नहीं हो पाते हैं। निरन्तर कर्मक्षय एवं कर्मबन्ध के कारण कर्मों की मात्रा कम नहीं होती है, और कभी-भी अधिक हो जाती है। इस प्रकार, कर्मों की मात्रा आदि कम होते-होते आयुष्य के अतिरिक्त सात कर्मो की स्थिति घटकर एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम से कुछ कम रहे, तब भी ग्रन्थि अर्थात् राग-द्वेष के तीव्र परिणाम का उदय रहता है। सात कर्मों | पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि-3/30 - पृ. 47 103 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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