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आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि की दसवीं गाथा में द्रव्य एवं भाववन्दन के अन्य लक्षण भी बताए हैं
काल,विधि और तद्गतचित्र आदि से तथा चैत्यवन्दनवृद्धि के भाव और अभाव से द्रव्यवन्दना और भाववन्दना में भेद हैं। सूत्रोक्त नियत समय में चैत्यवन्दन करना, निसीहित्रिक आदि से विधिपूर्वक चैत्यवन्दन करना, चैत्यवन्दन करते समय उसी में चित्त को लगाए रखना, चैत्यवन्दन में मनोभाव की वृद्धि के लिए सूत्रों को शुद्ध और शान्तिपूर्वक बोलना आदि भाववन्दना के लक्षण हैं। नियत समय पर चैत्यवन्दन नहीं करना, चैत्यवन्दन में चित्त नहीं लगाना, सूत्रों को शीघ्रता से बोलकर पूरा कर देना आदि द्रव्यवन्दना के लक्षण हैं।
जैनदर्शन में भावों की प्रधानता है। द्रव्य–क्रिया इसलिए बताई है कि द्रव्य करते-करते जीव भावों की ओर अग्रसर होगा। जब द्रव्य भी भावरूप बनेगा, तब ही क्रिया सार्थक होगी। द्रव्य की प्रधानता भाव के लिए ही है, अतः भाव के लिए द्रव्य व भाव- दोनों आवश्यक हैं। कृष्ण महाराजा ने द्रव्य व भाव से वन्दन किया था, जिसका ही परिणाम था कि चार नारकी के बन्धन टूट गए। भाववन्दना की प्रधानता का वर्णन आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की ग्याहरवीं गाथा में किया है
एक बार समुत्पन्न शुभभाव प्रायः नए शुभभावों को उत्पन्न करता है, इसलिए यहां भाववृद्धिरूप चैत्यवन्दन के लक्षणों में सर्वदा 'भाव' प्रधान लक्षण है।
भाव-चैत्यवन्दन के महत्व को कोई गलत सिद्ध नहीं कर सकता है, क्योंकि जिन-प्रवचन में स्पष्ट है कि जब द्रव्य में भाव जुड़ते हैं, तब ही सिद्धि की प्राप्ति होती है। मरुदेवी माता अपने पुत्र के मोह में व्यथित हो चिन्तन कर रही थी, पर वह चिन्तन जब आत्मभावों में परिवर्तित हो गया, तब कैवल्य की प्राप्ति एवं मुक्ति हो गई। प्रसन्नचन्द्रराजर्षि जब भावों से द्रव्यलड़ाई लड़ रहे थे और लड़ते-लड़ते जब भाव से कर्म से लड़ने लगे, तब उनको भी कैवल्य हो गया एवं अन्ततः मुक्ति हो गई। इलायचीकुमार
' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि – 3/10 - पृ. 40 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 3/11 - पृ. 40
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