________________
गया है। उपलब्ध प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि उनमें प्रधान द्रव्यवन्दना की योग्यता नहीं होती, अपितु अप्रधान द्रव्यवन्दना की योग्यता होती है । यह अप्रधान द्रव्यवन्दना अभव्यों में भी होती है ।
द्रव्य-भाववन्दना के लक्षण
द्रव्यवन्दन उसे कहा गया है जो चैत्यवन्दन तो कर रहा है, पर मनोयोगपूर्वक नहीं, अर्थात् मन कहीं और है, शब्द कुछ और हैं, चिन्तन कुछ और है, आंखें कहीं और हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि मन दसों दिशाओं में घूम रहा है। ऐसी स्थिति में चैत्यवन्दन करने वाला द्रव्य चैत्यवन्दन कर रहा होता है। द्रव्य - चैत्यवन्दन तब ही होता है, जब परमात्मा के प्रति समर्पण भाव का अभाव है। परमात्मा के प्रति जिसका अहोभाव है, वह चैत्यवन्दन करते समय अपनी आंखों को, अपने चिन्तन को, अपने मन को, अपने भावों को अपने आराध्य के सम्मुख ही रखता है। ऐसी स्थिति में किया गया वन्दन भाव - चैत्यवन्दन कहलाता है ।
इसी बात की अभिव्यक्ति आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि - पंचाशक की नौवीं गाथा में की है
द्रव्यवन्दना करने वाले व्यक्ति का चैत्यवन्दन में उपयोग (मनोभाव) नहीं होता है, वह चैत्यवन्दन के सूत्रगत अर्थों पर भी विचार नहीं करता है, न वन्दनीय अर्हन्तों के प्रति उसको बहुमान होता है, न वह यह सोचकर आनन्दित होता है कि इस अनादि संसार में अर्हन्तों की वन्दना करने का अवसर प्राप्त हुआ है तथा न ही उसे मार्ग से अथवा वन्दना - विधि स्खलन से भय होता है, लेकिन भाववन्दना करने वाला व्यक्ति द्रव्यवन्दना और भाववन्दना - इन दोनों में ही उपर्युक्त लक्षणों से भिन्न लक्षणों वाला होता है। उसकी चैत्यवन्दना सजगतापूर्वक होती है। वह वन्दना - सूत्रों का मनन करता है तथा यह जानकर प्रफुल्लित होता है कि उसे इस अनादि संसार में अर्हन्तों के चरण कमलों की वन्दना करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है और वह इस संसार से या वन्दना-विधि के स्खलन से भयभीत भी होता है ।
1
पंचाशक - प्रकरण आचार्य हरिभद्रसूरि - 3 / 9 - पृ. 39
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
95
www.jainelibrary.org