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________________ करते-करते भाववन्दना करने वाले बन जाते हैं। इस प्रकार, अपुनर्बन्धक जीवों की वन्दना द्रव्यवन्दना होने के बावजूद भी प्रधान द्रव्यवन्दना होने से वे चैत्यवन्दन के अधिकारी हैं, जबकि मार्गाभिमुख इत्यादि जीवों की वन्दना अप्रधान है, क्योंकि वे द्रव्यवन्दना करते-करते भी भाववन्दना वाले नहीं होते हैं। उनके अशुभ कर्मों की अपेक्षित हानि भी नहीं होती है, इसलिए वे जीव भाववन्दना तो दूर द्रव्यवन्दना के भी अधिकारी नहीं हैं, अर्थात् चैत्यवन्दना के भी अधिकारी नहीं हैं। सकृद्बन्धक आदि जीवों में अप्रधान द्रव्यवन्दना का समर्थन - सकृद्बन्धक, अर्थात् सागाभिमुख। इन जीवों में शुभ परिणाम न होने के कारण भाववन्दन के परिणाम तो नहीं होते हैं, पर प्रधान द्रव्यवन्दन की भी योग्यता नहीं होती है। वास्तव में, वन्दन करते समय भी परिणामों की शुद्धि आवश्यक है, क्योंकि शुभ एवं शुद्ध परिणामों के बिना वन्दना फलदायी नहीं होती है। वह वन्दन केवल संख्या का द्योतक होगा, पर सफलता का नहीं। सफलता के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। मन की एकाग्रता ही शुद्धि है। मन एकाग्र हो गया, तो परिणाम शुद्ध हो गए, अतः मन को एकाग्र करने का ही पुरुषार्थ करना चाहिए। मन की एकाग्रता के अभाव में द्रव्यप्रधान वन्दना कभी भी भाववन्दना नहीं बनती है, अतः इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दन-विधि पंचाशक की आठवीं गाथा में कहते हैं - ____ अपुनर्बन्धक से भिन्न सकृबन्धक भाववन्दना के योग्य नहीं समझे जाते हैं, अर्थात् सकृद्बन्धकादि जीवों में साक्षात् भाववन्दना की मनोभूमिका तो नहीं ही है, भाववन्दना की योग्यता भी नहीं है, क्योंकि उनका संसार बहुत होता है। शास्त्रों में सकृद्बन्धकादि जीवों के लिए द्रव्यवन्दना कही गई है। इनके अतिरिक्त अभव्यों के लिए भी द्रव्यवन्दना कही गई है, क्योंकि अभव्य जीव भी दीक्षा लेकर अनन्त बार ग्रैवेयक में उत्पन्न हुए हैं। शास्त्र में एक तरफ सकृद्बन्धक इत्यादि जीव द्रव्यवन्दना के भी अधिकारी नहीं है-ऐसा कहा गया है, जबकि दूसरी तरफ, उनको द्रव्यवन्दना होती है-ऐसा भी कहा 94 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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