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देशविरत एवं सर्वविरत का लक्षण - आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि की छठवीं गाथा में देशविरत एवं सर्वविरत के लक्षण का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया है
देशविरत अथवा सर्वविरत व्यक्ति तत्त्वमार्ग का अनुसर्ता एवं उसके प्रति श्रद्धावान् होता है। सम्यक्मार्ग से विचलित होने पर ही उसको उपदेश दिया जा सकता है। वह मोक्षमार्ग की साधना करता है। वह अपने तथा दूसरों के सद्गुणों के प्रति अनुराग रखता है, यथासम्भव धार्मिक कार्यों का सम्पादन करता है तथा चारित्रवान् होता है। अन्य जीवों में चैत्यवन्दन की अयोग्यता- चैत्यवन्दन की योग्यता भी हर जीवों में नहीं होती है। यह योग्यता एवं अयोग्यता परिणामों के आधार पर ही कही जाती है। जब परिणाम शुभ एवं शुद्ध होते हैं, तो वन्दना की योग्यता है और यह योग्यता अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरत औश्र सर्वविरत जीवों को प्राप्त है, पर मिथ्यादृष्टि आदि जीवों को नहीं। इसी कारण, चैत्यवन्दन में जीवों की अयोग्यता का भी कथन किया गया। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की सातवीं गाथा में अन्य जीवों की अयोग्यता का प्रतिपादन करते हुए द्रव्य एवं भाववन्दना की भी चर्चा की है।
___ अपुनर्बन्धक, अविरत–सम्यग्दृष्टि, देशविरत एवं सर्वविरत ही इस चैत्यवन्दन के अधिकारी होते हैं। भोश जो मार्गाभिमुख, मिथ्यादृष्टि इत्यादि हैं, वे इसके अधिकारी नहीं होते है। मिथ्यादृष्टि जीव तो द्रव्यवन्दना के भी अधिकारी नहीं होते, क्योंकि द्रव्यवन्दना के भी अधिकारी वे ही होते है, जो भाव-वन्दना के लिए अपेक्षित योग्यता रखते हैं।
___ द्रव्यवन्दना दो प्रकार की होती है- 1. प्रधान द्रव्यवन्दना और 2. अप्रधान द्रव्यवन्दना। जो द्रव्य-वन्दना, भाव-वन्दना का कारण बने, वह प्रधान द्रव्यवन्दना है एवं जो द्रव्यवन्दना, भाव-वन्दना का कारण न बने, वह अप्रधान द्रव्यवन्दना है। इसमें से प्रधान द्रव्य-वन्दना वाले जीव वन्दना के अधिकारी हैं, क्योंकि वे जीव द्रव्यवन्दना
| पंचा एक प्रकरण - आ. हरिभद्र सूरि - 3/6 - पृ. सं. 38 - पंचा एक प्रकरण - आ. हरिभद्र सूरि - 3/7 - पृ. सं. 38 65 पंचा एक प्रकरण - आ. हरिभद्र सूरि - 3/8 – पृ. सं. 39
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