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________________ पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि उतार-चढ़ाव है, तो क्या वन्दन जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भी हो सकता है ? उत्तर – इस प्रश्न का समाधान स्वयं हरिभद्र निम्न गाथा में ही दे रहें हैंअपुनर्बन्धक का लक्षण - आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक के अन्तर्गत् चौथी गाथा में अपुनर्बन्धक के लक्षण बताएं हैं कि अपुनर्बन्धक जीव के परिणाम किस प्रकार के हो सकते हैं, क्योंकि किसी भी जीवों के परिणामों के विषय में कहने के लिए उसका आचरण अर्थात् व्यवहार ही है। व्यवहार के स्तर पर ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह जीव किस परिणााम की अवस्था में है ? जो जीव तीव्र संक्लेश-भाव से कोई पाप नहीं करता है और न इस वीभत्स संसार को अधिक मान्यता देता है तथा देशकाल और अवस्था की अपेक्षा से देव, अतिथि, माता-पिता आदि के साथ यथोचित व्यवहार करता है, वह अपुनर्बन्धक जीव कहलाता है। सम्यग्दृष्टि का लक्षण – सम्यग्दृष्टि के लक्षण इस प्रकार हैं – सम्यग्दृष्टि संसार में रहकर संसार से अलग रहता है, अर्थात् तन से संसार में एवं मन से संयम में रहता है। सम्यग्दृष्टि जीव संसार के कार्यों को करते हुए केवल अपने कर्तव्य का निर्वाह ही करता है, किसी भी कार्य को करते हुए उसमें अभिभूत नहीं होता है। वह सुदेव, सुगुरु व सुधर्म के प्रति समर्पित रहता है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की पाँचवीं गाथा में सम्यग्दृश्टि के निम्न लक्षण बताए हैं सम्यग्दृष्टि व्यक्ति की पहचान यह है कि वह धर्मशास्त्र-विषयक प्रवचनों को सुनने का इच्छुक होता है, धर्म के प्रति अनुरक्त रहता है। सम्यग्दृष्टि गुरुओं एवं अन्य आराध्य पुरुषों को जैसे समाधि हो, वैसे उनकी सेवा में कर्तव्य-परायण होकर तत्पर रहता है। पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि -3/4- पृ. 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 3/5 - पृ. 37 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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