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(नृत्य) नाटक कर रहा था। नाटक करते-करते जब भावशुद्धि हुई, तो उसे वहीं कैवल्य की प्राप्ति हो गई और उसने अन्ततः मुक्ति को प्राप्त किया। जब तक द्रव्य में शुभभाव में शुद्धभाव नहीं जुड़ेंगे, तब तक सिद्धि नहीं है, सिद्धिभाव-चैत्यवन्दन से ही है। इसी भाव-चैत्यवन्दन की सिद्धि को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की बारहवीं एवं तेरहवीं गाथाओं में उदाहरण के साथ स्पष्ट करते हुए कहते हैं
जैसे अमृत के शरीर में रस आदि धातु के रूप में परिणमित होने के पहले ही उसके प्रभाव से शरीर में पुष्टि, कान्ति आदि सुन्दर भाव दिखते हैं, उसी प्रकार अपुनर्बन्धक आदि जीवों में मोक्ष का हेतु शुभभावरूप अमृत एक बार उत्पन्न होने पर निश्चित रूप से भक्ति की वृद्धिरूप नए-नए शुभभाव उत्पन्न होते हैं। पतंजलि आदि ने भी अपने योगशास्त्र में कहा है
__ जिस प्रकार मन्त्रविद्या आदि विधि-विधान में जिसका अभ्युदय अवश्य होना है, वही जीव प्रयत्न करता है, उसी प्रकार चैत्यवन्दन आदि विधि में भी जिन जीवों का अभ्युदय अवश्य होना है, वैसे अपुनर्बन्धकादि भव्यजीव ही प्रयत्न करते हैं, लेकिन इन दोनों में इतना भेद होता है कि मन्त्रादि के साधक को मन्त्रादि की विधि में जितना प्रयत्न करना पड़ता है, अपुनर्बन्धक आदि जीवों को चैत्यवन्दन की विधि में उससे कहीं अधिक प्रयत्न करना पड़ता है।
प्र न उपस्थित किया गया कि चैत्यवन्दन मंत्र आदि से उत्तम क्यों है ? इसका समाधान आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक की चौदहवीं गाथा में किया
चैत्यवन्दन से परम सिद्धि होती है, क्योंकि जहां मन्त्रादि से केवल इस लोक में भौतिक सिद्धि उपलब्ध होती है, वहीं चैत्यवन्दन से परमपद अर्थात् मोक्ष-पद की प्राप्ति होती है, इसलिए चैत्यवन्दन करना आवश्यक है। यही कारण है कि अपुनर्बन्धक जीवों, अर्थात् भव्य जीवों को चैत्यवन्दन-विधि में अत्यधिक पुरुषार्थ करना चाहिए।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 3/12,13 - पृ. 41 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 3/14 - पृ. 41
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