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दयानिधि - वे करुणा के निधान होते हैं। दुःख देने वालों पर भी उनकी दया की दृष्टि होती है, अतः परमात्मा को दयानिधि का सम्बोधन दिया गया है।' नित्यता - वे गुण और पर्याय के परिणमन में रमने वाले है, अर्थात् परभाव-पौद्गालिक शरीर आदि से निवृत्त होकर स्व-स्वभाव में नित्य रमण करने वाले होने के कारण वे प्रभु नित्यतायुक्त हैं।
तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि -
“तभावाव्ययत्वं नित्यत्वम्”, अर्थात् उक्त द्रव्य के भाव से दूर न होना ही नित्यत्व है। चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक को प्रारम्भ करने के पूर्व आचार्य हरिभद्र चैत्यवन्दनविधि पंचाशक की प्रथम गाथा में वीतराग परमात्मा महावीर को नमस्कार करके कहते हैं- “मैं उस चैत्यवन्दन-विधि का सम्यक् रूप से प्रतिपादन करूंगा, जो उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य की अपेक्षा से तीन प्रकार की है और मुद्रा-विन्यास की अपेक्षा से भी सर्वथा शुद्ध है, अतः यह निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो।' चैत्यवन्दन के तीन प्रकार - आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनविधि-पंचाशक के अन्तर्गत दूसरी गाथा में चैत्यवन्दन-विधि के तीन विभाग किए हैं, जो निम्न हैं
जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ।
जघन्य चैत्यवन्दन - केवल नवकार-मंत्र द्वारा वन्दन करना जघन्य वन्दना है।
3 देवचन्द चौवीसी - श्रीमदेवचन्द - पृ. 20 , 140 , 240 'तत्त्वार्थसूत्र - आचार्य उमास्वाति-5/31 5 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 3/1 - पृ. 36 6 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि -3/2 - पृ. 36
60 पंचा एक प्रकरण - आचार्य हरिभद्र सूरि - 3/3 - पृ.सं. 36
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