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जहाँ जिस चैत्य में रात्रि के समय न नन्दी होती है, न पूजा-बलि आदि होती है, न स्नात्र-पूजा और रथ-भ्रमण होता है, न स्त्रियाँ जाती हो, न नृत्य होता हो और न साधु जाते हों- ऐसे चैत्य को विधिचैत्य कहते हैं।
वर्तमान में रात्रि में स्त्रियों का जाना व नृत्य होना- इन दो कार्यों के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य नहीं होते हैं, अतः इन चैत्यों को अविधि चैत्य नहीं कह सकते हैं, क्योंकि काल के प्रभाव से लोगों के पास दिन में समय कम होने के कारण रात्रि में दर्शन व भक्ति का कार्यक्रम श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए रखा जाता है, जिसका लक्ष्य तो लोगों को धर्म से जोड़ना है, अन्यथा वे अपने आराध्य से अपरिचित हो जाएंगे। इस कारण, रात्रि-भक्ति होते हुए भी ये चैत्यविधि- चैत्य ही कहलाते हैं।
प्रश्न है कि परमात्मा की प्रतिमा का ही चैत्यवन्दन क्यों किया जाता है ?
इसका उत्तर है कि क्योंकि परमात्मा चैत्यवन्दन के योग्य है। अर्हत् शब्द योग्यतासूचक है, अतः उस शब्द से ही उनकी योग्यता का ज्ञान हो जाता है कि वे वन्दन के योग्य हैं।
चैत्य में विराजमान प्रतिमा तीर्थंकर या वीतराग परमात्मा की प्रतिमा है और तीर्थंकर परमात्मा निर्यामक और दयानिधि हैं। वीतराग - बीत गया राग जिसका, वह वीतराग है, अर्थात् जो अठारह दोषों से रहित है, उसके लिए न कोई अनुकुल है, न प्रतिकूल, न प्रिय है, न अप्रिय, न राग है, न द्वेषत, न किसी पर रोष है, न किसी पर दोषारोपण हैं, अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति में जो तटस्थ है, वह वीतराग है।
निर्यामक – संसार-समुद्र से पार उतारने वाली चारित्ररूप नाव को चलाने वाले होने के कारण परमात्मा भव्य जीवों के लिए निर्यामकरूप है।'
1देवचन्द चौवीसी - श्रीमद्देवचन्द - पृ. 20 , 140 , 240 2 देवचन्द चौवीसी - श्रीमद्देवचन्द - पृ. 20 , 140 , 240
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