________________
जहाँ तक मुनिधर्म का प्रश्न है, आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में पाँच प्रकार के चारित्र का उल्लेख किया है- 1. सामायिकचारित्र
2. छेदोपस्थापनीयचारित्र 3. परिहारविशुद्धिचारित्र 4. सूक्ष्मसंपरायचारित्र और 5. यथाख्यातचारित्र। आचार्य हरिभद्र ने. ग्यारहवें साधुविधि-पंचाशक में इसकी विस्तृत विवेचना की है। प्रस्तुत पंचाशक-प्रकरण में जिनदीक्षाविधि, साधुधर्मविधि, साधुसामाचारीविधि, पिण्डविधानविधि, शीलांगविधानविधि, आलोचनाविधि, प्रायश्चित्तविधि, कल्पविधि, भिक्षुप्रतिभाकल्पविधि- ऐसे नौ पंचाशक मुनिधर्म से सम्बन्धित हैं। जिनका विस्तृत विवेचन हमने इसी शोध-प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में किया है। इस प्रकार, सम्यकचारित्र के विस्तृत विवेचन के लिए हमने स्वतन्त्र अध्यायों की योजना की है। सम्यक्तप - जैन-दर्शन के ग्रन्थों में अधिकांशतः त्रिविध मोक्षमार्ग का स्वरूप प्राप्त होता है, परन्तु जैन आगम साहित्य में चतुर्विध मोक्षमार्ग का प्रतिपादन प्राप्त होता है।
उत्तराध्ययन में चतुर्विध मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया गया है- समदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप।
सम्यक्तप से तात्पर्य है कि तप सम्यक् हो। सही प्रकार का तप ही सम्यक्तप है।
पंचाशक-प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने तप का विशद वर्णन किया है, जिसका वर्णन आगे के अध्याय में यथाक्रम करेंगे, अतः यहाँ हम तप का वर्णन विशेष रूप से नहीं कर रहें हैं, संक्षिप्त में ही चर्चा करते हुए इसे विराम देंगे।
___ सम्यक्तप का आचरण ही मुक्ति का कारण बनता है। सम्यक्तप करना, करवाना और अनुमोदन करना- इन तीनों का परिणाम एक समान जानना चाहिए। मौलिक उपलब्धियों के हेतु किए गए तप का आचरण व्यर्थ हो सकता है, परन्तु सम्यक्तप का आचरण कभी भी व्यर्थ नहीं होता है । ज्ञातव्य है कि जिस तप में स्वार्थ होता है, हिंसा होती है, वह अज्ञान तप है, परन्तु सम्यक्तप इन सभी से परे होता है। पार्श्वनाथ के समय कमठ तप ही कर रहा था, अष्टापद तीर्थ पर तापस लोग तप ही कर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org