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करने वाला अणगार चार-केवली कर्म (अघाती-कर्म) का क्षीण करता है। उसके पश्चात् वह सिद्ध-बुद्ध, मुक्त और परिनिवृत्त होता है और सर्वदुःखों का अन्त करता है।'
ऐसा चारित्रवान् जगत् की सर्वोच्च सम्पदा को प्राप्त करता है, जिसे प्राप्त करने के बाद उसे कोई भी छीन नहीं सकता है, अतः सम्यकचारित्र की साधना ही साध्य की उपलब्धि है।
सम्यकचारित्र की इस सामान्य विवेचना के पश्चात् हम यह पाते हैं कि जैन-परम्परा में सम्यक्चारित्र को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया गया है। सम्यक्चारित्र के दो भेद विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं - (1) देशविरति चारित्र या श्रावकधर्म और (2) सर्वविरति-चारित्र, अर्थात् मुनिधर्म।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में इन दोनों ही धर्मों का स्वतन्त्र रूप से विभिन्न पंचाशकों में उल्लेख किया है।
श्रावक-धर्म के अर्न्तगत् उन्होंने पुनः दो भेद किए हैंसम्यग्दृष्टि-श्रावक और (2) देशविरत-श्रावक। सम्यग्दृष्टि-श्रावक के कर्तव्यों से सम्बन्धित मुख्य रूप से हमें निम्न पाँच पंचाशक मिलते हैंचैत्यवन्दनविधि-पंचाशक 2. पूजाविधि-पंचाशक 3. जिनभवन-निर्माणविधि- पंचाशक 4. जिनबिम्ब-प्रतिष्ठीविधि-पंचाशक 5. जिनयात्राविधि-पंचाशक। इसके अतिरिक्त स्तवविधि-पंचाशक को भी इससे सम्बन्धित माना है।
यद्यपि इस पंचाशक का सम्बन्ध देशविरत-श्रावक और मुनिधर्म से भी है, इसलिए सम्यग्दृष्टि-श्रावक के कर्तव्य के रूप में हमने मुख्य रूप से इन पाँच पंचाशकों को ही आधार बनाया है और इस द्वितीय अध्याय के द्वितीय खण्ड में हम इसकी चर्चा करेंगे।
जहाँ तक देशविरति-श्रावक-धर्म का सवाल है, आचार्य हरिभद्र ने श्रावकधर्मविधि-पंचाशक और उपासकविधि-पंचाशक में इसका विस्तृत विवेचन किया है। हमने प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का तृतीय अध्याय इन्हीं दो पंचाशकों के आधार पर लिखा है।
उत्तराध्ययन - 29/62
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