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रहे थे, परन्तु यह तप मोक्षार्थ नहीं था, अपितु स्वार्थबुद्धि से युक्त था, प्रसिद्धि के लिए था, हिंसायुक्त था, अतः ऐसे तप को सम्यक्तप नहीं कहा जा सकता ।
तप सम्यक् होना चाहिए । सम्यक्तप के लिए भी लोगों के प्रश्न रहते हैं कि तपस्या करके वरघोड़ा निकलवाना अभिनन्दन करवाना, भेंट लेना - यह भी हिंसा ही है तथा इसमें धन का व्यर्थ व्यय होता है, किन्तु मेरी दृष्टि में इसे हिंसा - युक्त नहीं कह सकते हैं और न यह धन का व्यर्थ व्यय है। अभिनन्दन, वरघोड़ा - यह तो तप के अनुमोदन का, जिनशासन की प्रभावना का प्रसंग है। जैनधर्म की तपस्या की अनुमोदना से भी जीव कर्म की निर्जरा कर लेता है। यह धन शुभकार्य में सद्व्यय हुआ । यह उसका पुण्य समझो कि उसकी अर्जन की गई सम्पत्ति संसार के कचरे में नहीं लगी और रत्न-प्राप्ति में लग गई। धन का व्यर्थ व्यय वहाँ है, जहाँ हिंसा भी है और व्यर्थ व्यय भी, अतः सम्यक्तप की अनुमोदना के लिए ये सारे कार्य सम्पन्न होते हैं । यह तो व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है कि उसे तप करके स्वयं में प्रसन्न नहीं होना है, प्रशंसा के लिए तप नहीं करना है, अतः सम्यक्तप की आचरणा ही करनी चाहिए, क्योंकि सम्यक्तप ही आत्मविशुद्धि और मुक्ति का हेतु है ।
आचार्य हरिभद्र ने सम्यक्तप के सम्बन्ध में अपने ग्रन्थ पंचाशक - प्रकरण मे सम्यक्तपविधि नाम के पंचाशक की योजना की है। हमने इस शोध-प्रबन्ध में तपविधि नामक पंचम अध्याय की योजना की है और उसी में आचार्य हरिभद्र द्वारा वर्णित तपविधि का विस्तृत विवेचन किया है, अतः इस संक्षिप्त निर्देश के बाद हम आचार्य हरिभद्र के चतुर्विध मोक्षमार्ग की चर्चा को विराम देते हैं। इसी अध्याय के अग्रिम खण्ड में हम सम्यग्दृष्टि - श्रावक के कर्त्तव्यों की चर्चा करेंगे ।
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