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[ १७ ]
सभी परस्पर क्षमा-याचना करते हैं, ताकि विगत व्यवहार से यदि किसी के मनोभावों को ठेस पहुँची हो तो वह क्लेश समाप्त हो जाए । क्षमा-याचना में एक विशेष आदर्श दृष्टिगोचर होता है । सामान्यतः हर आदमी अपने प्रतिद्वन्द्वी से क्षमा मंगवाना चाहता है, जो कि उसकी पराजय का परिचायक है । किन्तु इस पर्व में प्रतिष्ठा क्षमा-याचक की है । व्यक्ति में स्वतः क्षमाप्रार्थना की भावना उत्पन्न होती है । जैनधर्म में ८४ लाख जीवयोनियाँ मानी जाती हैं । व्यक्ति उन योनियों में निवास करने वाले सभी जीवों से क्षमा-प्रार्थना करता है । सभी जैनियों का एक ही सामूहिक गान होता है
खामि सव्ये जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणई ॥
अर्थात् मैं समस्त जीवों से क्षमा-याचना करता हूँ । सब जीव मुझे क्षमा करें। सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है, मेरा किसी भी जीव के साथ वैर-विरोध नहीं है ।
पर्युषण पर्व में क्षमा का आदान-प्रदान करना अनिवार्य है । इस पर्व के बाद भी यदि किसी का आपस में मनोमालिन्य रहता है, तो उसका पर्व मनाना निरर्थक है । इसी परिप्रेक्ष्य में जैन साहित्य में एक ऐतिहासिक प्रसंग प्राप्त होता है । एक बार राजा उदायन को उज्जैनी के राजा प्रद्योत से युद्ध करना पड़ा । प्रद्योत उदायन के द्वारा कैद कर लिया गया । उदायन अपने राज्य सिंधुसौवीर की ओर लौट रहा था कि मार्ग में पर्युषण पर्व की वेला आ गयी । उदायन जैनी था । उसने पर्व मनाया। सभी से क्षमा-प्रार्थना की । उदायन की क्षमाभावना स्तुत्य है | उसने अपने शत्रु प्रद्योत से भी क्षमा मांगी। उदायन ने उसे भी क्षमा कर दिया और उसका राज्य उसे लौटा दिया । " यह घटना जैन साहित्य में क्षमा के आदर्श को उपस्थित करती हैं । सचमुच यह उत्तम क्षमा का ज्वलन्त उदाहरण है ।
१.
आवश्यक सूत्र, पगामसिज्झाय की अन्तिम गाथा,
(ख) मूलाचार, २०८.
२. द्रष्टव्य -- ( क )
आवश्यक चूर्णि भाग १, पृष्ठ ४०१ (ख) दशवैकालिक चूर्णि, पृष्ठ ६१ (ग) निशीथ चूर्णि भाग ३, पृष्ठ १४७
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