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पर्युषण में क्षमा का आदान-प्रदान पूर्णतः अपरिहार्य है । निशीथचणि में कहा गया है कि यदि अन्य समय में हुए क्लेश कटता की उस समय क्षमा-याचना न की गई हो तो पर्युषण में अवश्य कर लेवें।' जैनदर्शन के विद्वान् डॉ० सागरमल जैन इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि जैन आचार-दर्शन की मान्यता है कि यदि श्रमण साधक पक्षान्त तक अपने क्रोध को शान्त कर क्षमायाचना नहीं कर लेता है, तो उसका श्रमणत्व समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार गृहस्थ उपासक यदि चार महीने से अधिक अपने हृदय में क्रोध के भाव बनाये रखता है और जिसके प्रति अपराध किया है, उससे क्षमायाचना नहीं करता तो वह गृहस्थ-धर्म का अधिकारी नहीं रह पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति एक वर्ष से अधिक तक अपने क्रोध की तीव्रता को बनाये रखता है और क्षमा-याचना नहीं करता, वह सम्यक-श्रद्धा का अधिकारी भी नहीं होता है, और इस प्रकार जैनत्व से भी च्युत हो जाता है।
(ख) क्षमा को पूजा-जिस प्रकार जैनधर्म में जिनत्व की प्राप्ति के लिए जिन की पूजा की जाती है, उसी प्रकार क्षमा गुण की प्राप्ति के लिए क्षमा की पूजा की जाती है। यह प्रथा अधिकांशतः दिगम्बर जैन परम्परा में प्रचलित है। क्षमा की पूजा से क्रोध का विनाश और सहिष्णुता का विकास होता है । इसकी पूजा विधिवत् होती है । इसके लिए भी लोग जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीपक, धूप, फल आदि अर्घ अर्पित करते हैं। महाकवि रइघू के शब्दों में
कोपादिरहितां सारां सर्वसौख्यकरां क्षमाम् ।
पूजया परया भक्त्या पूजयामि तदाप्तये ॥ अर्थात् कोप आदि से रहित, सारभूत और सब सुखों की आकर रूप क्षमा की मैं उसकी प्राप्ति के लिए परम भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ।
(ग) क्षमा-मन्त्र-जैनियों में क्षमा को मन्त्र के रूप में भी प्रयोग किया जाता है । मन्त्र है, 'ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तम१. निशीथभाष्यचूर्णि, (३१७९) २. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन,
भाग २, पष्ठ ४१०
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