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लोगों की कर्कश, अशालीन, तीखी, मर्मभेदी वाणी सहन करो। क्षति चाहें कितनी ही बड़ी क्यों न उठानी पड़ी हो, किन्तु बड़प्पन इसी में है कि मनुष्य उसे मन में न लाये और बदला लेने के इरादे से दूर रहे। बदला लेने का आनन्द तो एक ही दिन का होता है, किन्तु क्षमा करने वाले का गौरव चिरस्थायी/मृत्युञ्जयी होता है।'
क्षमा का आदान-प्रदान परस्पर यश एवं सौहार्द्र बढ़ाता है। महोपाध्याय समयसुन्दर लिखते हैं
क्षमा करंता खरच न लागै, भांगे कोड़ कलेस जी ।
अरिहंत देव आराधक थावे, व्याप सुयश प्रदेश जी ।। आचार्य हस्तीमल जी ने क्षमा के आदान-प्रदान को सम्यक्त्व प्राप्ति का हेतु बताया है। वे कहते हैं सम्यक्त्व की प्राप्ति तभी हो सकती है जबकि काम, क्रोध, मान, मद, मोह मात्सर्यादि विषय-कषायों को मन्द कर पूर्वकृत दुकृत्यों के लिए प्राणिमात्र से विशुद्ध मन से क्षमा-याचना करे और अपने प्रति किये गये अपराध के लिए प्राणिमात्र को क्षमा प्रदान करें। आचार्य विजयवल्लभसूरि के मतानुसार पुराने संचित और आत्मा के साथ बद्ध कर्मों को घटा सकें या हटा सकें, इसके लिए सबसे अच्छी साधना/प्रक्रिया क्षमापना हैं । जैन धर्म में क्षमा का व्यावहारिक पक्ष :
जैन साधना में क्षमा की प्रधानता है। यद्यपि विश्व की सभी धार्मिक परम्पराओं में क्षमा को स्थान दिया गया है। किन्तु जैन धर्म में क्षमा का जो चरम उत्कर्ष दिखाई देता है, वैसा अन्य किसी धर्म में दिखाई नहीं देता। संक्षेप में जैनों में क्षमा की साधना विविध रूप में की जाती है
(क) पर्व के रूप में क्षमा : जैनधर्म का प्रमुख वार्षिक पर्व है, 'पर्युषण' । इसमें क्षमा के स्थान को देखकर इसे क्षमावणी /क्षमापना पर्व भी कहते हैं। क्षमा के द्वारा मैत्री और प्रेम का प्रसार करना—यही इस पर्व की पृष्ठभूमि है । इस पर्व में गृहस्थ और मुनि १. तिरुक्कुरल-तीर्थकर, अंक. अक्टूबर, १६८३ २. समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि, क्षमा छत्तीसी, ३३ (पृष्ठ ५२६). ३. उद्धृत-खामेमि सव्वे जीवे, पृष्ठ ८.
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