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स्वागत करो। व्यक्ति के लिए यही वास्तविक 'सामायिक' है। समत्वबुद्धि का स्वामी होना ही सामायिक है। जो आता है आने दीजिए। फर्क सिर्फ इतना ही रखना है कि आप उनमें उलझ मत जाना। विचारों के स्रोत आने दीजिए, उन्हें रोकिए मत । रोकना दमन है और दमन भावी विस्फोट की तैयारी हो सकता है। स्प्रिंग को जितना दबाओगे उतनी ही तेजी से वह उछलेगी। ध्यान में विचारों को रोका कि ध्यान आपके लिए तनाव का कारण बन जाएगा। क्योंकि ऐसा कर के दमन कर रहे हो। अगर कोई यह सोचता है कि मैं आग को राख से ढंककर दबा दूं तो आग बुझ जाएगी? नहीं, राख से दबा दोगे तो कुछ समय के लिए ढंक जाएगी पर हवा का झौंका आएगा, राख उड़ेगी, आग फिर से प्रगट हो जाएगी। इसलिए रोकना नहीं है, चित्त में जो भी यातायात चलता है उससे अलग होकर उसे देखना है, दृष्टा होकर, दर्शक होकर । जैसे हम फिल्म देखते हैं, चित्र आते हैं, चले जाते हैं, पर तुम अलग रह जाते हो। कुछ व्यक्ति फिल्म के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। वे फिल्म देखते हुए हंसने लगते हैं, रोने लगते हैं, क्रोधित हो जाते हैं यानि कि अब फिल्म उन पर हावी हो गई। अगर एक दर्शक की तरह, दृष्टा की तरह फिल्म को देखते रहे, तीन घंटे बीत जाएंगे, फिल्म सिर्फ फिल्म रहेगी। हमारा मन एक चित्रकार है, वह दिन-रात सपनों को बनाता रहता है। संसार का निर्माण कोई भगवान या परमात्मा नहीं करता, इस संसार का सृष्टा हमारा अपना चित्त है। इसलिए चित्त में जो यातायात चलता है, चलने दो। लेकिन बिल्कुल यही भाव रहे कि मैं उससे अलग हूं, देखने वाला हूँ कि कैसे-कैसे चित्र आ रहे हैं, कैसे-कैसे विचार आ रहे हैं। दो-तीन मिनट बाद पाएंगे कि विचार धीरे-धीरे शान्त होते चले जा रहे हैं। आखिर उन विचारों को ताकत देने वाले तो तुम ही हो। जब तुमने स्वयं को उन विचारों से अलग कर लिया तो उन्हें शक्ति कहाँ से मिलेगी, वे कैसे आएंगे? चित्त के पास जितनी पौद्गलिक ताकत है, भौतिक ऊर्जा, वह बहुत जल्दी खत्म हो जाती है। पर जैसे ही तुमने अपने-आपको उसमें जोड़ लिया, तुम बह गए, तुम, तुम न रहे सिर्फ विचार हो गए। तब भटकोगे। विचारों की, कल्पनाओं की शृंखला शुरू हो जाएगी। उधेड़-बुन चलती रहेगी। जैसे ही पहला विचार उठे उससे अलग होकर देखो। अरे मैं वहाँ नहीं
चलें, सागर के पार/८६
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