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पाओगे । पहचान के लिए अन्तर्दृष्टि चाहिये, पानी के लिए प्यास चाहिये, अमृत के लिए अभीप्सा चाहिये । अन्तर्दृष्टि खुली तो प्रभु का मन्दिर ठौर- ठौर है, डाल-डाल और पात-पात है ।
अन्तर्घट
में विराजमान परमात्मा को मेरे प्रणाम हैं।
आप सबके नमस्कार ।
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चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ६५
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