SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुम्हारी प्यास न हो और परमात्गा भी सामने आ जाए तो तुम परमाला को पहचान न पाओगे। महावीर के रहते लोग उन्हें न पहचान पाए, गालियाँ देते रहे, कीलें ठोंकते रहे। जब वे गुजर गए तो सब लोगों ने उन्हें भगवान मानना शुरु कर दिया । व्यक्ति के जीतेजी उसे क्रॉस पर लटकाया जाता है, सुकरात की तरह जहर दिया जाता है, गांधी को गोलियाँ खानी पड़ती हैं। लेकिन जब वह मर जाता है तब धूप-दीप, अगरबत्ती से उसकी पूजा की जाती है। उसके नाम की अखण्ड ज्योत जलाई जाती है। फूल चढ़ाए जाते हैं। जीवित को कोई नहीं मानता। जीते-जी ही मान लो तो शायद कुछ उपलब्धि हो जाए। मरने के बाद तो तुम सिर्फ उनकी तस्वीरों को ढोते हो। जब रात में सोने को तकिया मिला था तव किनारे कर दिया और सुबह तकिए को कंधे पर रखकर सड़कों पर चल रहे हो! जीवित परमात्माओं की कद्र हर कोई नहीं कर सकता, गृत्यु होने के वाद हरेक परमात्मा का मूल्य आंकता है। हमारे लिए जीवित परमात्मा का मूल्य होना चाहिये। मैं उन सभी परमात्माओं को स्वीकार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ जो अतीत में हो चुके हैं। वर्तमान में भी जो भले ही परमात्मा न हों, लेकिन हम उनमें मान सकते हैं, स्वीकार कर सकते हैं तो अवश्य ही स्वीकार किया जाना चाहिए। यह कली ही फूल बनेगी। हमारा परमात्म-स्वरूप स्वयं प्रगट हो। आपको जो अनुभूति हो रही हो, क्षणिक अनुभूति को भी संजोकर सहेज कर रखिए। बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है। क्षण-क्षण की अनुभूति ही विराट होती है। अगर बूंद की ही उपेक्षा कर दी तो घड़ा कभी नहीं भरेगा। अगर अनुभूति भले ही बूंद के रूप में हो; स्वागत करो, स्वीकार करो। इसकी अगवानी करो, सत्कार करो, क्योंकि यह हमारी अपनी मौलिक उपलब्धि है | धरती पर सद्पुरुषों की कमी नहीं है, वशर्ते तुम्हारी दृष्टि असत् न हो ! बुरे से बुरे आदमी में भी कोई-न-कोई अच्छाई मिल जाएगी। तुम्हारी दृष्टि अगर ठीक है, सत् की ग्राहक है, तो प्रभु की मूरत सभी ठौर है, सत् सर्वत्र है। मानव स्वयं एक मंदिर है, तीर्थ रूप है धरती सारी। मूरत प्रभु की सभी ठौर है, अन्तर्दृष्टि खुले हमारी ।। आप अपनी दृष्टि को विराट करें, भूमा को आत्मसात् करें । अन्तर्दृष्टि खुले वगैर अगर परमात्मा तुम्हारे सामने प्रगट भी हो गए, तो तुम पहचान ही नहीं परमात्मा : चेतना की पराकाष्टा/६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003960
Book TitleChetna ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy