________________
वह धर्म में होता है। यदि कोई पशु है तो उसका पशु होना उसका व्यक्तित्व है और पशुता में जीना उस पशु का धर्म है। शैतान की शैतानियत, इन्सान की इन्सानियत और भगवान की भगवत्ता का प्रगट होना उनका धर्म है। आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म ठंडा करना है। हर वस्तु अपने-अपने स्वभाव में है। स्वभाव ही धर्म है।
पेड़-पौधे, पहाड़, पशु-पक्षी सब तत्त्व अपने-अपने धर्म के अनुसार चल रहे हैं तब इन्सान इन्सान के रूप में शैतान क्यों हो रहा है? इन्सान का पशु या शैतान के रूप में होना ही उसका विधर्म है। यदि आप अपने स्वभाव में आ जाएं, परमात्मा न भी बन पाएं लेकिन इन्सान बन जाएं, बहुत है। इन्सान की भलाई, प्रगति और अस्तित्व इसी बात में है कि वह पूरी तरह इन्सान बना रहे। जैसे हम बाहर से इन्सान हैं वैसे ही हमें भीतर से भी इन्सान होना चाहिए। इन्सान की शान इसी में है।
मनुष्य जब अपने मनुष्यत्व के करीब पहुंचता है तब वह अपनी भगवत्ता के करीब पहुंचता है। मेरा प्रयास है कि मनुष्य, मनुष्य के और अधिक करीब आए। मनुष्य अगर परमात्मा के निकट आता है तो यह उसका अखण्ड सौभाग्य है, पर जब वह स्वयं के निकट आता है तो अपने धर्म के निकट आ रहा है। यह निश्चित है कि हर बीज में वृक्ष होने की सम्भावना रहती है और जैसे हर बीज वृक्ष हो सकता है, ऐसे ही हर मनुष्य भगवान भी हो सकता है। मनुष्य अनन्त सम्भावनाओं का स्वामी है। जैसे बीज वृक्ष का स्वामी है, वैसे ही मनुष्य भगवत्ता का स्वामी हो सकता है।
बीज वृक्ष तो होना चाहता है लेकिन बहुत घबराता भी है कि कहीं टूट गया तो? लेकिन वृक्ष होने के लिए तो बीज को टूटना ही होगा, जमीन में भी धंसना होगा, खाद-पानी भी जुटाना होगा। जब सारी चीजें उपलब्ध हो जाएंगी तब कहीं बीज वट-वृक्ष बनता है। इंसान अपने अहंकार को भी जीवित रखे और सर्वकार भी हो जाए, यह सम्भव न होगा। बूंद मिटे तो ही सागर में समा सकती है, सागर हो सकती है। जब तक बूंद बूंद बनी रहेगी तब तक सागर नहीं हो सकती। जब वह सागर में समा जाएगी वो अनन्त, विराट हो जाएगी।
तुम गुरु के पास जाकर अपना ज्ञान बघारते हो। अपनी शास्त्रीय चेतना को आरोपित करते हो तो गुरु के पास जाने का कोई अर्थ न होगा। अगर तर्क-वितर्क ही करना है तो किसी पंडित और मौलवी को ढूंढ लो। गुरु के पास जाकर तो सारे तर्क और वितर्क समाप्त हो जाने चाहिए। हमारी जो मान्यताएं हैं परमात्मा : चेतना की पराकाष्ठा/५४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org