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कोई मिला, प्रभु मिला। कोई आया, प्रभु आया। मैं तो ऐसा ही सोचता हूँ। भले ही आने वाला अपने को कुछ भी, मेरा शिष्य समझे, लेकिन मैं तो यही भाव रखता हूँ कि मेरे लिए प्रभु के रूप में आ रहा है और हर दिन प्रभु नया-नया रूप लेकर आ रहा है। सब रूपों-आकारों के पीछे बस वही एक बसता है, जीता है। जब हम सब जगह प्रभु का भाव रखते हैं तब चित्त में विकार नहीं रहते। फिर हमारे लिए सारे इन्सान एक जैसे हो जाएंगे। तब नारी और पुरुष का विकार भी घटेगा। हर व्यक्ति परमात्म स्वरूप होगा। जब हम मंदिर में प्रतिमा को विराजित कर उसमें परमात्मा को स्वीकार कर सकते हैं तो अपने में, और अपने से जुड़े लोगों में परमात्मा को स्वीकार क्यों नहीं कर सकते।
धरती का भगवान धरती पर है। हम सबके भीतर वह विराजमान है। मेरा प्रेम सबके लिए है, घट-घट में समाये उस प्रभु के लिए है। सबके भीतर जो प्रकाशमान प्रभु है, उसे मेरा प्रणाम है। स्वीकार करें।
नमस्कार।
चेतना का ऊर्ध्वारोहण/४४
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