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________________ I करो कि यह मैं नहीं खाता, अपने भीतर जो परमात्मा विराजमान है उस परमात्मा को अर्घ्य चढ़ाता हूँ । जब ऐसा सोचोगे तो कभी भी बाजारू चाट-पकौड़ी नहीं खा पाओगे। कभी तुम भगवान को सिगरेट पिला सकते हो ? शराब, गांजा-भांग पिला सकते हो कि ले प्रभु भोग लगा । यह तुम्हारे जीवन का दुर्भाग्य है कि तुमने स्वयं में प्रभु न माना, दूसरे में प्रभु न माना । सिर्फ एक स्थान - विशेष में प्रभु को सीमित कर दिया कि वह मंदिर, मस्जिद, गिरजा या गुरुद्वारे में है । वहाँ भी प्रभु है, अवश्य है । लेकिन असली प्रभु तो तुम स्वयं हो। इसलिए बाजार भी जाओ तो यह मत सोचो कि बाजार जा रहा हूँ । सोचो कि प्रभु की परिक्रमा लगाने मंदिर जा रहा हूँ। अपने शरीर को भी परमात्मा का निवास स्थान / मंदिर समझो । तब आप शरीर को भी शुद्ध रखेंगे। स्वच्छ स्थान पर रहना पसंद करेंगे। स्वच्छ वायु-मंडल में श्वास लेंगे, स्वच्छ खाना खाएंगे, स्वच्छ पानी पीएंगे। हर चीज में स्वयं ही पवित्रता लाने का प्रयास करेंगे । जब मंदिर में जाते हो तो सोचते हो यहाँ क्रोध करना पाप है लेकिन जब तुम स्वयं मंदिर बन जाओगे और क्रोध करोगे तो इससे बड़ा पाप और क्या होगा ? मंदिर में जो पाप हो रहा है उससे तो शायद बचा भी जाओ लेकिन अपने-आप में जो पाप हो रहा है उससे बचकर कहाँ जाओगे ? दूसरों की आँख में तो धूल झौंकी जा सकती है लेकिन अपनी आँख में धूल झौंककर कब तक जी सकोगे ? इसलिए कहता हूँ प्रभु! अपने आपको दीन-हीन- दरिद्र मत मानो । अपने में प्रभु मानो । जो है उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करो। दूसरों को भी जो तुम्हारे यहाँ आया है मेहमान मत मानो, समझो प्रभु का ही कोई दूसरा रूप आया है । तब मंदिर में जाकर जो प्रसाद चढ़ाते हो उससे भी अधिक आनन्द उस अतिथि / जीवित परमात्मा को भोजन कराने में आएगा । जब अपने बच्चे में भी भगवान कृष्ण का रूप देख लोगे, उसके प्रति भी कृष्ण जैसी श्रद्धा करोगे तभी भगवान कृष्ण के प्रति सच्ची श्रद्धा कर सकोगे। मैं यह नहीं कहता कि अपने बालक को चांटा मत मारो, मैं तो सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि अगर चांटा मारो तो पहले यह सोच लेना कि क्या भगवान कृष्ण सामने आ जाए और शैतानी करें तो चांटा मार सकोगे? भगवान आपके सामने आ जाएं और उन्हें गाली दे सकते हो तो इन सब लोगों को गाली देना | अगर भगवान को अपशब्द नहीं कह सकते तो किसी से भी न कहो । भगवान को पाकर तुम जितने प्रसन्न हो जाओगे उतने ही प्रसन्न हर किसी से मिलते-जुलते उठते-बैठते हो जाओ । Jain Education International चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ४३ www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.003960
Book TitleChetna ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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