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हमने कोई क्रिया की या आचार-विचार, व्यवहार पाला और इन सबके द्वारा हमारे भीतर की चित्त-शुद्धि न हुई या विकार कम न हुए तो उस धर्माचरण का परिणाम क्या हुआ? ऐसे धर्माचरण का परिणाम क्या निर्वाण और मुक्ति होगा? मुक्ति और निर्वाण तो चित्त के विकारों के समापन से उपलब्ध होता है, न कि किसी पथ पर चलते रहने से। चित्त के विकार थोड़े से भी कम हो जाएं तो हम कथित धार्मिकों से अधिक धार्मिक होंगे क्योंकि किसी भी प्रकार का दुष्कर्म, चाहे वह वाणी का हो या शरीर का, सब हमारे भीतर से ही आते हैं। हमारे मनोविकारों से ही हमारे शरीरगत और वाणीगत विकार प्रगट होते हैं। यदि कोई गाली देता है तो उसका अर्थ यह नहीं कि उसकी जबान गंदी है अपितु उसके चित्त में, मन में इतनी गालियाँ भरी हुई हैं, बुद्धि में इतनी विकृति है कि जबान गंदी लगती है। यदि कोई किसी को चाँटा मारता है तो यह अपराध उसके शरीर द्वारा इसलिए हो रहा है कि उसके मन में चाँटा मारने का भाव है।
निश्चित रूप से मनुष्य के भीतर मनोविकार प्रगट होते हैं लेकिन बाहर निकले यह जरूरी नहीं है। प्रत्येक मनुष्य के सामने यह सहज समस्या रहती है कि वह अपने भीतर उमड़ने वाली इच्छा को पूरा करे या दबाकर रखे। वह अपनी इच्छाओं का निरोध करे या उपयोग करे । लेकिन प्रत्येक इच्छा का उपभोग करना भी सम्भव नहीं है क्योंकि बीच में समाज, संस्कार, व्यवहार, संस्कृति, सभ्यता हमें रोक लेते हैं और जब उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती तो वह उन्हें दबाना चाहता है। लेकिन आत्म-दमन का मार्ग कभी भी अध्यात्म का मार्ग नहीं हो सकता क्योंकि अपनी इच्छा को जितना दबाओगे उसकी ताकत उतनी ही अधिक बढ़ेगी। स्प्रिंग को जितनी शक्ति से दबाओगे छोड़ने पर उतनी ही तेजी से झटका लगेगा। इसलिए किसी भी इच्छा को दबाना अध्यात्म नहीं है, वहीं हर इच्छा को पूरी कर लेना सभ्यता नहीं है तो फिर आखिर मनुष्य के लिए मार्ग कौनसा हो सकता है?
जब वह अपनी हर इच्छा को परी भी नहीं कर सकता और दबाये रखे तो और ज्यादा विस्फोट की सम्भावना होती है; तो बड़ी मुश्किल है, अब मनुष्य क्या करे? दमन और उपभोग दोनों ही मार्ग घातक हैं। मनुष्य के सामने यह बहुत बड़ी समस्या है। एक अहिंसक आदमी के मन में भी कभी-कभी हिंसा के भाव भड़क उठते हैं और कभी-कभी हिंसक के मन में भी अहिंसा के भाव आ जाते हैं। जो व्यक्ति अब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं उनके मन में ब्रह्मचर्य के भाव आ जाते हैं और जो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उनके मन में अब्रह्मचर्य की कल्पना आ जाती है। किसी पक्षी को पिंजरे में कैद कर लो तो वह आकाश में
चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/१६
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