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अलग-अलग नहीं किया जा सकता लेकिन इसके मूलभूत सिद्धान्त या मूलभूत प्रक्रिया को हम जान सकते हैं कि जीवन का निर्माण कैसे हुआ और जीवन का समापन कैसे होगा।
व्यक्ति के भीतर केवल बुराइयां ही नहीं, अच्छाइयां भी छिपी हुई हैं। शुभ केन्द्र भी हैं। फ्रायड जिसने इतना बड़ा मनोविज्ञान खड़ा किया वह भी जीवन के मूल्यों तक, जीवन के मूलभूत सिद्धान्तों तक नहीं पहुंच पाया। उसने केवल एक ही व्याख्या दी कि मनुष्य के मन में दमित इच्छाएं भरी हुई हैं और उसके द्वारा जितनी भी गलत प्रवृत्तियाँ होती हैं उन सबके पीछे उसकी दमित वृत्तियाँ
और दमित इच्छाएं ही काम करती हैं। लेकिन व्यक्ति के भीतर केवल बुरे ही नहीं बल्कि अच्छे संस्कार भी हैं, अच्छे केन्द्र भी हैं।
हमारे भीतर अच्छी और बुरी दोनों ही सम्भावनाएं हैं। जब हम ध्यान करते हैं तब वे सम्भावनाएं जगती हैं। ध्यान में दोनों चीजें साथ-साथ जगती हैं, दमित वृत्तियाँ और अच्छे संस्कार । अर्थात् धूल भी उड़ती है और वर्षा भी होती है। यदि उड़ती हुई धूल देख पाओगे तो वर्षा होती हुई भी देख सकोगे। जो दोनों चीजें तुम्हें दिखाई न दे, तुम्हारी अनुभूति में न आए तो जानना कि जो मार्ग तुमने पकड़ा है उसमें कुछ-न-कुछ कमी है।
यदि धर्म के मार्ग का कोई प्रयोग नहीं है और उसका परिणाम हम अपने जीवन में प्राप्त नहीं कर पाते तो उस धर्म में भी कुछ कमी है। धर्म का कोई मार्ग नहीं और उस मार्ग का कोई मार्गफल नहीं तो वह धर्म दिखाऊ ऊपर-ऊपर होगा। अगर जीवन के मूल्यों का, अध्यात्म का कोई प्रयोग नहीं और प्रयोग का कोई परिणाम नहीं तो वह अध्यात्म सिर्फ रूढ़िवाद, क्रियाकाण्ड और कट्टरता होगा।
जीवन का निर्माण कट्टरता से नहीं होता। जीवन का निर्माण जीवन-मूल्यों से होता है। जीवन के मूल्य कभी बाहर से नहीं आते, वे वहीं से आते हैं जहाँ अमूल्य चीजें छिपी हुई हैं। इसलिए दमित इच्छाएं भी प्रगट होंगी और अच्छे संस्कार, अच्छी सम्भावनाएं भी जन्म लेंगी। मन, चित्त, विकल्प सब हमारे ही भीतर छिपे हैं। अगर हमारे मन में यह संकल्प है कि हम अरिहंत-भाव के साथ जिएंगे और जीवन के साथ संघर्ष भी कर लेंगे, तब शायद कुछ हुआ जा सकता है। मैंने अपने गहरे अनुभवों से पाया है कि व्यक्ति जब तक अपने चित्त के विकारों को शुद्ध नहीं कर लेता, अन्तर्जगत् को उज्ज्वल नहीं बना लेता तब तक उसके द्वारा किया गया प्रत्येक धर्माचरण मात्र परम्परा निर्वाह और रूढ़िवाद होता है। व्यवहार का निभाना भर होता है।
मनुष्य का अंतरंग/१८
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