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है जो भीतर ही भीतर दूसरों का विध्वंस करता रहता है । अपनी विध्वंसक शक्तियों को सृजन में लगा दो तो तुम अहिंसक हो और अहिंसक होकर भीतर से ताली उमड़ती है तो वह पाप नहीं, हिंसा नहीं, एक पुण्य-कृत्य है ।
भीतर से, जो भी घटित होता है उस घटना को घटने देने से रोकना व्यक्ति के लिए आत्म- दमन ही है । अगर ताली भीतर से न उमड़ी हो केवल प्रचलनवश बजा दी गयी हो तो उस ताली को बजाने का कोई अर्थ ही नहीं है। ऐसी तालियाँ तो प्रमत्त और मूर्च्छित दशा में बजायी जाती हैं एक ताली वह होती है जिसे हम प्रेम की ताली कहेंगे, भक्ति की ताली कहेंगे, अहोभाव और प्रमुदितता से निपजी ताली कहेंगे। कल शाम अगर कुछ लोगों ने तालियां बजायी तो यह वैसी ताली नहीं थी जो किसी वक्ता के बोलने पर बजायी जाती हो, समारोह का उद्घाटन या दीप प्रज्वलन करते वक्त बजायी जाती हो । वह ताली तो तुम्हारी चेतना से निपजी थी, अभिभूत होने से निपजी थी, आनन्दित होने के कारण निपजी थी। जिस क्षण तुम अभिभूत हुए इस समय अपनी अभिभूतता को प्रकट करने के लिए सिवा ताली के तुम्हारे पास कोई साधन नहीं होगा । वह ताली तो तुम्हारे लिए सूरदास का करताल थी । ताली की बजाय अगर तुम्हारे पास ढोलक होती, नगाड़े होते तो तुम उनको भी बजा बैठते ।
रजनी! आप अपनी जगह सही हैं कि अमृत वचनों को सुनकर जीवन में उतारा जाता है। यहां जो कुछ भी होता है वह जीवन में उतरने का ही प्रतीक है। अगर मीरा के हृदय में कृष्ण उतर गये और मीरा के पाँव के घुंघरु थिरकने लग गये तो इसमें कोई प्रश्न वाचक बात नहीं है। 'पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे ।' यह तो जो रस मिला उस रसमयता का उत्सव भर है। कुछ धन्यवाद और अहोभाव ऐसे होते हैं । जिन्हें वाणी से नहीं करताल से प्रकट किया जाता है, घुंघरुओं से जिसे व्यक्त किया जाता है ।
बूंद-बूंद अमृत टपक रहा है । अमृत की फुहारें गिर रही हैं । इस बूंद-बूंद को अपने कंठ से नीचे उतरने दो, अपने हृदय में उतर लेने दो तब अपनी अलमस्ती में भीतर से जो कुछ उमड़ आये वह हमारे होने का प्रमाण होगा, चेतना का आनन्द होगा ।
अन्त में, सबके भीतर विराजमान प्रभु को मेरे प्रणाम हैं, स्वीकार कीजिये ।
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चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ६६
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