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भाषण के पश्चात् बजाई जाती है। वैसे भी ताली बजाने से जीव-हिंसा होती है। - रजनी बाफना मैं किस प्रश्न का जवाब दूं - गुरुजनों के प्रवचन के बाद ताली बजाना उचित नहीं है या ताली बजाना ही उचित नहीं है। क्योंकि जीव-हिंसा तो ताली बजाने से होती है। गुरु के प्रवचन के पश्चात् बजाने से होती है, इसका तो कोई संबंध ही नहीं है। हिंसा तो होगी ही, चाहे राजनेता को सुनकर बजाओ या चन्द्रप्रभ को सुनकर बजाओ। एक वात और है राजनेताओं के भाषण के बाद ताली बजवाई जाती है, और गुरु को सुनने के बाद ताली बजती है। जो बजवाई जाती है उसमें नेता लोग आते हैं, मुख्य वक्ता बोलता है और चार नेता जो पास में बैठे होते हैं, उसके अच्छी बात बोलने पर ताली बजा देते हैं, बाकी भीड़ भी उन्हें देखकर ताली बजा देती है। वे चार सहायक नेता आते ही इसीलिए हैं कि ताली बजवाई जा सके।
जब गुरु बोलता है और कोई ताली बजाता है तो वह ताली बजती है, बजवाई नहीं जाती। वह कही नहीं जाती। कोई एक बार नहीं हजार बार कह दे, तब भी ताली नहीं उठेगी। ताली बजवाई जाए तो उसमें जीव-हिंसा होगी और ताली बज जाए तो वह पुण्य-कृत्य हो जाएगा। वह सहजता, वह बात जो ठेठ दिल में पहुँच गई और तुमने ताली बजा दी, वह ताली बज गई, उसे किसी ने बजवाया नहीं। उस समय ताली सिर्फ हाथों से नहीं हृदय से बजती है। भीतर तो इतनी गड़गड़ाहट होती है कि बाहर तो सिर्फ दो-चार बार हाथ पीटकर रह जाते हो, भीतर की ताली तो दिनभर चलती रहती है। भीतर जो झंकार होती है वह दिनभर झंकृत रहती है, तुम्हें झंकृत कर देती है, आंदोलित और प्रभावित कर देती है। जब तालाब में कंकर फेंकते हैं तो एक ही तरंग उठनी चाहिए? नहीं, जहाँ कंकर गिरता है वहाँ से इतनी तरंगे उठती है कि पूरे तालाब को आंदोलित कर देती हैं। इतना ही नहीं कि किनारों से टकराकर खत्म हो जाए। किनारों से टकराएगी और पुनः उतनी ही तेजी से वापस लौटेगी। इसलिए मेरे प्रभु, जीवन में आप हिंसा और अहिंसा के प्रति इतने सावचेत हो, यह अच्छी बात है। मैं तो हिंसा और अहिंसा का इतना ही अर्थ लगाता हूं कि वह व्यक्ति अहिंसक है जिसकी अन्तरवृत्तियों से, विध्वंस की, विस्फोट की, हिंसा की वृत्तियाँ समाप्त हो चुकी है और वह हिंसक
चलें, सागर के पार/६८
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