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मैं कहना चाहूँगा, वह मंत्र है सचेतनता । हँसते हुए भी सचेतन रहिए और खाते हुए भी सचेतन; सड़क पर चल रहे हैं तब भी सचेतन रहिए । अगर आप सड़क पर चल रहे हैं और चलते वक्त अगर केवल सड़क पर और अपने पाँव पर ही ध्यान दे रहे हैं तो यह चलना भी अपने आप में ध्यान का एक चरण है ।
अगर आप भोजन कर रहे हैं तो प्रेम से भोजन करें, आनंद लेते हुए, प्रत्येक कौर का आनन्द लेते हुए भोजन करें। जब ध्यान धरें तो अपनी प्रत्येक श्वास का आनन्द लें । अन्तर्मन में उठ रही हर लहर का आनंद लें । आप संगीत का आनन्द तो लेते हैं न्। अपनी श्वास-धारा का भी आनंद लें, अपनी श्वसनक्रिया का भी आनन्द लें। ये जो आती-जाती हुई श्वसन - धारा है उस प्रत्येक धारा का वैसे ही आनन्द लें जैसे कोई सागर के किनारे बैठकर सागर की लहरों का आनन्द लिया करता है। जैसे कि कोई झरोखे में बैठकर रास्तों से गुजर रहे राहगीरों का आनन्द लिया करता है । जब आँख बाहर खुले तो बाहर के प्रति सचेतनता और जब आँख को हम अपने भीतर ले जाते हैं तो अपने प्रति सचेतनता, समग्रता होनी चाहिए। इसकी शुरुआत करने के लिए हम अपने व्यावहारिक जीवन में एक काम शुरू कर दें। सचेतनता को साधने का एक बहुत सीधा सरल-सा तरीका हो सकता ।
जैसे ही आप भोजन की थाली पर बैठें, मौन ले लें। मौन लेते ही बाहर की गतिविधियों के प्रति हमारी जो तत्परताएँ हैं, जो चंचलता है, उस पर विराम लग गया, संयम आ चुका है।
मौन लेने के बाद थाली में जो भोजन आया है, आप सहज भाव से उसका एक-एक कौर खाएँ । सचेतनता से सावधानी से चबाएँ, उसका स्वाद लें और सचेतनता से ही उसे ग्रहण करें। भोजन में कोई कमी रह जाए तो प्रतिक्रिया न करें । हो-हल्ला करके भोजन के अवसर को व्यर्थ न करें । उसका भी सचेतनता से अनुभव करें कि सब्जी में जो अधिक खारापन या नमक आया है उसको खाते वक्त आपके चित्त की अवस्थाएँ कैसी बन रही हैं ।
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अपनी चित्तदशाओं को समझें । आप अपने राग-द्वेष के अनुबंधों को
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अनुसरण कीजिए आनंददायी धर्म का
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