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समझने में सफल हो सकेंगे। तो पानी पीओ तो सचेतनता से, सड़क पर चलो तो सचेनता से। अचेत अवस्था में अगर चलते रहे, चलते रहे हैं नीचे, नज़र पड़ी किसी फिल्म के पोस्टर पर तो सावधान ! हिन्दुस्तान की नगर पालिकाओं की हालत तो आप लोग जानते हैं, कहीं भी गटर खुला हुआ मिल सकता है। आपकी नज़र ऊपर और आप गटर के नीचे। इसीलिए जीवन में चाहिए सचेतन अवस्था। आप सचेतन योग कीजिए, सचेतन प्राणायाम कीजिए, सचेतन ध्यान कीजिए, सचेतन कार्य और प्रार्थना कीजिए। सचेतनता में ही एकाग्रता छिपी है। अब भला वह कैसा प्रसंग, कैसा निमित्त जो हमारे ध्यान को, हमारी सचेतनता को विचलित कर दे।
मैंने सुना है: एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के ध्यान में डूबा उससे मिलने जा रहा था। अचानक वह किसी संत से टकरा गया। संत ईश्वर का ध्यान और स्मरण करते हुए चल रहा था। युवक उस संत से टकरा गया, पर वह चलता रहा। संत ने चिल्लाकर कहा, 'नालायक, मैं ईश्वर के ध्यान में डूबा था, तूने मुझसे टकराकर मेरा ध्यान भंग कर दिया।'
युवक को लगा कि सचमुच उससे गलती हो गई। उसने कहा, 'महाराज, क्षमा करें। मैं किसी और के ध्यान में डूबा था, सो अपनी धुन में आपका ख़्याल न रहा, पर महाराज, टकराया तो मैं भी हूँ, पर आपसे टकराने पर भी मेरा ध्यान तो भंग नहीं हुआ, फिर आप तो संत हैं, आपका ध्यान कैसे भंग हो गया?'
ध्यान की आत्मा है एकाग्रता और एकाग्रता की आत्मा है धुन। धुन लग गई तो चाहे जैसे निमित्त या वातावरण बने, प्रेमी युवक की तरह उस पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
अंतिम बात, सचेतनता से ही जुड़ी हुई चीज है निर्लिप्तता। अर्थात् सबके बीच, सबके साथ रहकर भी उनसे निर्लिप्त रहो। मुक्ति के द्वार इसी से खुलते हैं। लिप्तता तो आसक्ति है और आसक्ति अज्ञान का, बंधन का कारण है। जीवन को जिएँ होश से, बोध से, मुक्तिभाव से, आनंद-भाव से।
शांति पाने का सरल रास्ता
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