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अचेत अवस्था में अगर कार भी चलाई तो सावधान ! दुर्घटना घट सकती है।
__ जीवन के प्रत्येक कार्य को सचेतनता से सम्पादित करना संबोधिसाधना की पहली और अन्तिम सिखावन है। यहाँ तक कि बुरे निमित्तों को पाकर कभी क्रोध की दशा भी आ जाए तो अपने क्रोध को भी सचेतनता के साथ व्यक्त करें। जीवन में चाहिए सचेतनता।
बाहर भी सचेतनता चाहिए और भीतर भी सचेतनता चाहिए। बाहर जो-जो कार्य करो उन कार्यों के प्रति सचेतनता चाहिए और भीतर जब ध्यान धरो तो अपनी काया और अपने अन्तर्मन के प्रति सचेतनता चाहिए। जो सचेत होते हैं वे ही साक्षित्व को साध पाते हैं। जो सचेतन होते हैं वे ही अपने भीतर समग्रता के दर्शन कर पाते हैं।
सचेतनता को साधने का एक अकेला मंत्र यही बन सकता है कि जो करो उसे पूरे मन से करो। एक काम, एक मन। ध्यान करो तो केवल ध्यान करो। खाना खाओ तो केवल खाने पर ध्यान हो। खाना खाओ तब बैंक बेलेंस की मत सोचो। अगर आप बैंक में गए हैं, तो वहाँ लेन-देन करते वक्त खाने की मत सोचो।
सचेतनतापूर्वक जीवन के प्रत्येक कार्य को सम्पादित करने का पहला और आखिरी मंत्र है: एक काम एक मन । जो भी करेंगे पूरे मन से करेंगे, नहीं तो नहीं करेंगे। खाते वक़्त अगर बैंक का विचार आ जाए और याद हो ही आए कि 'एक काम एक मन' मैं सचेतनता से खाना खा रहा हूँ, सचेतनता से ही खाऊँगा। जैसे ही बैंक का विचार खाना खाते वक्त आए तो अपने आप से अनुरोध करें कि अभी तो खाना खाऊँ। एक काम एक मन । खाना खा रहा हूँ तब केवल खाना खाऊँगा। यदि यह सचेतनता हम बरकरार रखते हैं तो भोजन करते हुए भी समझो कि ध्यान किया जा रहा है।
कल ही एक प्रिय साधक भाई कह रहे थे कि ऐसा कोई मंत्र बतलाइए कि हंसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम्, कि हँसते, खेलते, खाते हुए भी हम ध्यान धर सकें, इसका गुर बताइये।
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शांति पाने का सरल रास्ता
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