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बैठकर हम सचेतनता को साधते हैं । सचेतनता यानी अवयरनेस, काँसियसनेस। अगर हम प्रत्येक कार्य को अवेयरनेस, सचेतनता के साथ सजग होकर सम्पादित करें तो कार्य हमेशा पूर्ण होगा। सचेत होकर अगर आप शेविंग करेंगे तो शेविंग अच्छी होगी। अगर सचेत अवस्था में खाना बनाएँगे तो खाना ढंग से बनेगा। अचेत अवस्था में बनाया गया खाना तो दोषपूर्ण ही होता है।
अभी हाल ही अपनी आत्मीय साधिका विजयलक्ष्मी जी ने खेद और प्रायश्चित-भाव के साथ एक घटना मुझे लिख भेजी है कि वह अपने घर की सफाई कर रही थी। दरवाजे और पर्दे झाड़ रही थी कि तभी उसकी नज़र दरवाज़े के दूसरी तरफ गई। वहाँ लाल रंग, खून जैसा कुछ टपक रहा था। वह उसे देखकर चौंक पड़ी। पास गई तो देखा वह वास्तव में खून ही था। उसने झट से दरवाजा खोला। वह यह देखकर दंग रह गई कि दो मिनट पहले जब उसने कमरे का दरवाज़ा बंद किया था तो एक छिपकली उस बंद होते दरवाज़े की चौखट में आ गई थी। दरवाज़ा खुलते ही खून से भरी छिपकली धड़ाम से ज़मीन पर आ गिरी। वह मर चुकी थी। वीजे का मन तड़फ उठा। उसे आत्मग्लानि महसूस हुई - अपनी असावधानी पर, एक जीव की हो चुकी हत्या पर। उसे तभी अहसास हआ काश, मैं सफाई के कार्य को थोडा और सजगता से करती!
सजगता, सचेतनता साधना के मार्ग पर तो प्रथम है ही, सांसारिक गतिविधियों को निपटाते समय भी सचेतनता के प्रकाश को अपने हाथों में रखना चाहिए। साधना का आप यह मर्म समझ लें कि अगर अचेत अवस्था में कुछ भी करेंगे तो वो कार्य अपना शुभ परिणाम नहीं देगा पर अगर सचेत अवस्था के साथ कुछ भी करने की कोशिश करेंगे तो वो कार्य पूरा होगा, शुभ होगा, सम्पूर्ण होगा, समग्रता से होगा।
साधक के लिए जो एकमात्र अन्तर-दीप चाहिए, वह है सचेतनता। संतरा भी खाओ, आम भी खाओ तो सचेत होकर खाना, सचेतनता से खाना। अगर अचेत अवस्था में खाते रहे तो सावधान । गाल कभी भी दाँतों के बीच में आ सकते हैं । अचेत अवस्था में खाना बनाया तो हाथ कभी भी जल सकते हैं।
अनुसरण कीजिए आनंददायी धर्म का
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