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किया, टोकरी किनारे रखी और लगा उस पत्थर को हटाने । पत्थर भारी था, पर उसे लगा कि जिस पत्थर से उसे ठोकर खानी पड़ी है, कम-से-कम दूसरों को तो उससे ठोकर न लगे। मैं तो निकल जाऊँगा, पर दूसरे ... !
उसने पूरी ताक़त लगाकर धीरे-धीरे उस पत्थर को लुढ़काना शुरू किया । पत्थर को हटाने में वह सफल रहा। पर आश्चर्य इस बात का था कि जिस पत्थर को उसने हटाया, उस पत्थर के नीचे एक लिफाफा रखा था, जिस पर लिखा था यह उपहार उसके लिए है जो दूसरों के लिए हितकारी सोच
रखता है। उस लिफ़ाफ़े में दस स्वर्ण मुद्राएँ थीं।
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कोई मुझसे पूछे कि धर्म क्या है, तो मैं कहूँगा इस तरह की सोच ही धर्म है। कहते हैं: एक दफा गुरु रामदास और शिवाजी साथ-साथ दक्षिण भारत की ओर जा रहे थे । उनके साथ तीसरा कोई न था । रास्ते में एक नदी आई। उसमें पानी उफान पर था, बहाव भी तेज था। गुरु ने नदी को देखा और शिवाजी से कहा, 'शिवा, नदी को पहले मैं पार करूँगा ।' शिवाजी ने कहा, 'नहीं गुरुजी, पहले मैं पार करूँगा, फिर आप । ' गुरु और शिष्य में इस बात को लेकर बहस छिड़ पड़ी। आखिर, हारकर गुरु ने शिवाजी को नदी पहले पार करने की रज़ा दे दी ।
जब दोनों नदी पार कर गए, तो गुरु जी ने कहा, 'आज पहली बार तुमने मेरी आज्ञा नहीं मानी।' शिवाजी ने कहा, 'मैं आपको अनजानी नदी में पहले कैसे जाने देता। यदि आप बह जाते तो ?'
गुरुजी ने कहा, 'और यदि तू बह जाता तो?'
शिवाजी ने ज़वाब दिया, 'गुरुजी, मेरे बह जाने से कोई नुकसान नहीं होता । आप कई शिवा तैयार कर लेते, किन्तु यदि आप बह जाते तो मैं एक समर्थ गुरु से वंचित हो जाता। मेरे जीवन से आपका जीवन देश के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है ।'
मुझे यह अत्यन्त प्रीतिकर कहानी लगी है। इस तरह की उदात्त सोच में ही धर्म की आत्मा छिपी हुई है। आप जिस परिवार में रहते हैं, वहाँ एक दूसरे के प्रति प्रेम, सम्मान, सरलता और त्याग की भावना रखना आपका अनुसरण कीजिए आनंददायी धर्म का
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