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तंबूरा बन जाया करता है। कितने मजे की बात है कि आदमी तुम्बे को तंबूरा बना सकता है, तो क्या हम अपने तुम्बे को तम्बुरा नहीं बना सकते।
जिस बाँस को लोग मरने के बाद अर्थी और अन्त्येष्टि के लिए उपयोग करते हैं, उसी बाँस का सही ढंग से उपयोग करना आ जाए तो बाँस, बाँस नहीं रहता वह बाँस भी बाँसुरी बन जाया करता है ! अरे, तीन और तीन छह तो पूरी दुनिया के लिए होते हैं, पर तुम यदि अध्यात्म-पथ पर चलकर तीन और तीन तैंतीस कर सको, तो यह हुई बुद्धिमानी की बात । तीन और तीन छः तो मन्दिर के अंदर बैठने वाला तो क्या, सीढ़ी पर बैठकर मांगने वाला भी कर लेता है, मंदिर के भीतर जाने वाला तीन और तीन तैंतीस करे, तो हुई मजे की बात । मंदिर जाकर भी, ध्यान लगाकर भी, व्रत-तप- अनुष्ठान करके भी मंदिर वैसे के वैसे रहे, तो फिर झूठ - फरेबी करने वाले कौन-से बुरे हैं !
देख रहा हूँ नीचे ज्ञान-मंदिर में पिताजी महाराज का अस्थि-कलश रखा हुआ है। मैं जब भी उसके सामने जाता हूँ, तो लगता है कि यह भी एक अस्थि- - कलश है और हम सब लोग भी एक अस्थि - कलश ही हैं। वह किसी ताँबे के लोटे में बन्द पड़ा अस्थि - कलश है और अपने सब लोग इस काया के कलश में पड़े हुए अस्थि - कलश हैं ।
जीवन का मर्म न समझा तो हर आदमी एक अस्थि - कलश ही है। कोई बाहर का अस्थि - कलश है तो कोई भीतर का अस्थि - कलश है । जिस व्यक्ति ने इस अस्थि-कलश के मर्म को समझा, जाना, उसके लिए अस्थिकलश के भीतर भी एक दिव्य महान आत्मा है । इस अस्थि - कलश के बीच भी परमात्मा की एक आभा व्याप्त रहती है । जिस व्यक्ति के अन्तर्मन की शांतिमय और आनन्दमय दशा है, वही इस अस्थि - कलश में रहकर अपने आप को आस्था का कलश बना पाता है ।
वरना कौन नहीं जानता कि शरीर जन्मधर्मा है, शरीर अन्नधर्मा है, शरीर रोगधर्मा और मरणधर्मा है । जिस-जिस का जन्म हुआ उन-उनकी सबकी मृत्यु तो होनी ही है। सूरज उगता है तो अस्त भी होता है । फूल खिलता है तो मुर्झाता भी है । इन्सान जन्म लेता है तो मरता भी है । जब हममें से हर
मुस्कान दीजिए, मुस्कान लीजिए
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