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गई, यानी जो बुरा हुआ उसके लिए पहले नरक तो भोगना होगा। जो अच्छा किया, उसके लिए फिर स्वर्ग द्वारा अभिनंदन होगा। आप इस बात को किसी कृष्ण के लिए न समझें। बात तो समझने के लिए कही गई है। बाकी कृष्ण तो अद्भुत हैं, अनेरे हैं । वैसा होने के लिए सौ जनम लेने पड़ते हैं। वे तो अवतार हैं, महापुरुष हैं । तीर्थंकर हैं। मुझे कृष्ण प्रभु से जीवन का बहुत माधुर्य मिला है । कृष्ण तो चाहे पृथ्वी पर अवतरित हो या पाताल में, वे जहाँ जाएँगे स्वर्ग की ही रचना करेंगे ।
बाकी, किसी के भेजे कोई स्वर्ग नहीं जाता। किसी के भेजे कोई नरक नहीं जाता। तुम्हारे अपने अन्तर्मन की छाया के साथ ही स्वर्ग और नरक चला करता है ।
शांति स्वर्ग है, अशांति नरक है। शांति का साधन स्वर्ग-पथ का साधक है; अशांति का पथिक नरक- पथ का राहगीर है। इसलिए हर साधक अपने अन्तर्मन को शांतिमय बनाने का अनुष्ठान करे। हर हाल में मैं अपने चित्त के क्लेशों को, संक्लेशों को, राग-द्वेष, वैर-वैमनस्य के संस्कारों से भरे चित्त को शांतिमय बनाता चला जाऊँ । जब भी हम अपने अन्तर्मन को मोहमाया से, वैर-वैमनस्य से, अन्तर्द्वन्द्व से, जीवन के छातीकूटों से अपने आप को मुक्त कर लेते हैं, स्वयं को शांति, आनंद और बोधि का प्रकाश प्रदान करते हैं, तो उसी अवस्था का नाम है 'निर्वाण शान्तम् ' - मुक्ति' ।
मरने के बाद मिलने वाली मुक्ति अधूरी है। वह मुक्ति ही आदरणीय है जिसका हम अभी अनुभव और आनन्द ले सकें, जिसमें हम पल-पल अभी डूब सकें । और यह सब तभी सम्भव है जब हम अपने जीवन को वीणा के तारों की तरह साधेंगे। वीणा के तारों को हमेशा अपने दिलोदिमाग में याद रखते हुए, जैसे एक संगीतकार वीणा के तारों को साधता है ऐसे ही हम अपने जीवन को साधें ।
जीवन तो किसी तुम्बे की तरह है, तुम्बा यों तो खारा - तीखा - कसैला होता है पर किसान उसे भी मीठा बना लेते हैं । तुम्बा तुम्बा होता है, पर अगर तुम्बे को बदलने की तकनीक हो तो तुम्बा तुम्बा नहीं रहता । तुम्बा भी तब
शांति पाने का सरल रास्ता
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